होली का उत्सव क्यों मनाते हैं | the story of narsingha bhagwan bhakt prahlad

              पवित्र होली का सार

होली का उत्सव क्यों मनाते हैं | the story of narsingha bhagwan bhakt prahlad

होली का सार पुराणों में छुपा :-

    पुराण एक महाकाव्य जैसा है। पुराण में जो हुआ है, वह कभी हुआ है ऐसा नहीं, किन्तु सदा होता रहता है। तो पुराण में किन्हीं घटनाओं का अंकन नहीं है, वरन किन्हीं सत्यों की ओर संकेत है।

इसलिए पुराण शाश्वत है।हम लोग होली की कथाओं को सुनते हैं और पढ़ते हैं जिसमें हिरणकश्यप,प्रह्लाद,होलिका से सम्बंधित कथाएं प्रचलन में हैं।

secret of holika dahan

अब आगे बड़ी प्यारी कथा के सार को जानते हैं:-

    कथा का सार कहता है कि नास्तिक के घर आस्तिक का जन्म हुआ? ऐसा नहीं की यह कभी कभी की घटना है,यह कथा तो गहरी है कि जो यह कहती है कि सदा ही नास्तिकता में ही आस्तिकता का जन्म होता है। और होने का उपाय ही नहीं है। आस्तिक की तरह तो कोई पैदा हो ही नहीं सकता।

     ध्यान रहे, पैदा तो सभी नास्तिक की तरह ही होते हैं। फिर उसी नास्तिकता में आस्तिकता का फूल लगता है। तो निश्चित ही नास्तिकता ही आस्तिकता की मां है व पिता है। नास्तिकता के गर्भ से ही आस्तिकता का आविर्भाव होता है।

    हिरण्यकश्यप कभी हुआ या नहीं,इससे कोई प्रयोजन नहीं है। प्रहलाद कभी हुए, न हुए इससे कोई प्रयोजन नहीं,लेकिन इतना मुझे पता है,कि पुराण में जिस तरफ संकेत है, वह रोज होता है, प्रतिपल होता है,हमारे भीतर हुआ है, इतना ही नहीं वह घटना निरन्तर भीतर घट रही है।

और जब भी कभी मनुष्य होगा,और कहीं भी मनुष्य होगा, पुराण का सत्य दोहराया जाएगा। 

    इसलिए पुराण सार-निचोड़ है,घटनाएं नहीं,इतिहास नहीं, मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है।

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अब आगे पुराण की कथा के रहस्य के मूल को समझें :-

   साधारणतः हम समझते हैं, कि नास्तिक, आस्तिक का विरोधी है। वह बिल्कुल ही गलत है। नास्तिक बेचारा विरोधी होगा भी कैसे?? नास्तिकता को आस्तिकता का पता ही नहीं है, नास्तिकता,आस्तिकता से सदैव ही अपरिचित है,ध्यान रहें नास्तिकता व आस्तिकता दोनों के विरोध में मिलन नहीं हुआ। लेकिन आस्तिकता के विरोध में नहीं हो सकती नास्तिकता,- क्योंकि आस्तिकता तो नास्तिकता के भीतर से ही आविर्भूत होती है। 

   नास्तिकता जैसे बीज है और आस्तिकता उसी का अंकुरण है। बीज का अभी अपने अंकुर से मिलना नहीं हुआ। हो भी कैसे सकता है? बीज अंकुर से मिलेगा भी कैसे? क्योंकि जब अंकुर होगा तो बीज न होगा। जब तक बीज है तब तक अंकुर नहीं है। अकुंर तो तभी होगा जब बीज टूटेगा और भूमि में खो जाएगा। तब अंकुर होगा। जब तक बीज है तब तक अंकुर हो भी नहीं सकता। यह विरोधाभासी बात समझ लेनी आवश्यक है।

   जैसा कि हम सभी जानते हैं कि :- बीज से ही अंकुर पैदा होता है, लेकिन बीज के विसर्जन से, बीज के खो जाने से, बीज के तिरोहित हो जाने से। बीज अंकुर का विरोधी कैसे हो सकता है। बीज तो अंकुर की सुरक्षा है। वह जो खोल बीज का है, वह भीतर अंकुर को ही सम्हाले हुए है,बिल्कुल ठीक समय के लिए, ठीक ऋतु के लिए, ठीक अवसर की तलाश में।       

    लेकिन, बीज को अंकुर का कुछ पता नहीं है। अंकुर का पता हो भी नहीं सकता। और इसी अज्ञान में बीज संघर्ष भी कर सकता है,अपने को बचाने पर वह डरेगा, टूट न जाऊं, खो न जाऊं, मिट न जाऊं! भयभीत होगा। उसे पता नहीं कि उसी की मृत्यु से महाजीवन का सूत्र उठेगा। उसे पता नहीं, उसी की राख से फूल उठने वाले हैं। पता ही नहीं है। इसलिए बीज क्षमा योग्य है, उस पर नाराज मत होना। दया योग्य है। बीज बचाने की कोशिश करता है। यह स्वाभाविक है अज्ञान में।

अब विषय को समझने हेतु कथा का कुछ हिस्सा लेते हैं:- 

   हिरण्यकश्यप एक पिता हैं, पिता से ही पुत्र आता है। पुत्र पिता में ही छिपा है। पिता बीज है। पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यप को भी पता नहीं कि मेरे घर भक्त पैदा होगा। मेरे घर और भक्त! वह तो सोच भी नहीं सकता। मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी--इसकी कल्पना भी वह नहीं कर सकता। लेकिन घटना घटी प्रह्लाद जन्मा हिरण्यकश्प से।    

   हिरण्यकश्यप ने अपने को बचाने की चेष्टा शुरू कर दी। घबड़ा गया होगा। डरा होगा। 

   यह छोटा-सा अंकुर था प्रहलाद, 

     इससे डर भी क्या था? 

  फिर यह अपना ही था, 

      इससे भय भी क्या था!

 लेकिन जीवनभर की मान्यताएं, जीवनभर की धारणाएं दांव पर लग गई होंगी।

   हर पिता पुत्र से लड़ता है। हर पुत्र ,पिता के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा पिता और पुत्र का ही सवाल नहीं है,

"यह तो हर आज कल के खिलाफ बगावत है, बीते कल के खिलाफ बगावत है। वर्तमान का अतीत से छुटकारे की चेष्टा है।"

   भूतकाल पिता है, वर्तमान पुत्र है। बीते कल से हमारा आज पैदा हुआ है। बीता कल जा चुका, फिर भी उसकी पकड़ गहरी है। विदा हो चुका, फिर भी हमारी गर्दन पर उसकी फांस है। हम उससे छूटना चाहते भी हैं लेकिन भूतकाल भूल-जाए।पर भूतकाल हमें ग्रसता है,पकड़ता है।

     ध्यान रहे:- वर्तमान भूतकाल के प्रति विद्रोह है। यद्दपि भूतकाल से ही आता है वर्तमान। लेकिन भूतकाल से मुक्त न हो तो दब जाएगा, मर जाएगा।

"हर पुत्र ,पिता से पार जाने की कोशिश है।"

अब समझते हैं,

हम प्रतिपल अपने भूतकाल से लड़ रहे हैं,वह पिता से संघर्ष है।

   एक सच लिख देती हूं कि हमेशा से ही सम्प्रदाय अतीत है, धर्म वर्तमान में है। इसलिए जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा,सम्प्रदाय से संघर्ष निश्चित ही होगा। 

   ठीक समझा जाये तो सम्प्रदाय यानी हिरण्यकश्यप :-  धर्म यानी प्रहलाद। निश्चित ही हिरण्यकश्यप शक्तिशाली है, प्रतिष्ठित है। सब ताकत उसके हाथ में है। प्रहलाद का सामर्थ्य ही क्या है?

   वह तो अभी नया-नया उगा अंकुर है। कोमल अंकुर है। सारी शक्ति तो भूतकाल की है, वर्तमान तो अभी-अभी आया है, ताजा ताजा है। बल क्या है वर्तमान का? वर्तमान जीतेगा और भूतकाल हारेगा।क्योंकि वर्तमान जीवन्तता है और भूतकाल मौत है।

   पुराण अनुसार हिरण्यकश्यप के पास सब था- फौज-फांटे थे,पहाड़-पर्वत थे। वह जो चहता,वह सब करता। जो चाहा उसने करने की कोशिश भी की,फिर भी हारता गया।

   क्रिश्चन सम्प्रदाय में देखा जाए तो जीसस पैदा हुए, यहूदियों का सम्प्रदाय बहुत पुराना था, सूली लगा दी जीसस को। लेकिन मार कर भी मार न पाए?

    इसीलिए पुराण की कथा यह है कि बड़ी ऊपर पहाड़ से  फेंका प्रह्लाद को चोटिल नहीं कर पाए, डुबाया नदी में,नहीं डुबा पाए,और किसी भी प्रयास में उसे मार न पाए। जलाया आग में,नहीं जला पाए। इससे कृपया यह न समझ लीजिएगा कि किसी को आग में जलाया जाएगा तो वह न जलेगा। नहीं, बड़ी  प्रतीक की बात है। 

    इसीकारण मैं लिखती हूं, पुराण तथ्य नहीं है, सत्य है।यदि आप यह सिद्ध करने निकल जाओ कि आग जला न पाई प्रहलाद को, तो आप गलती में पड़ जाओगे, तो आप भूल में पड़ जाओगे, तो आपकी दृष्टि भ्रान्त हो जाएगी। आप अगर यह समझो कि पहाड़ से फेंका और चोट न खाई, तो आप पुनः गलती में पड़ जाओगे। नहीं, बात अत्यंत ही गहरी है,उपरोक्त बात से कहीं बहुत गहरी है। यह कोई ऊपर की चोटों की बात नहीं है। 

  "थोड़ा विचारिये! हिरण्यकश्यप का नाम होता, प्रहलाद के बिना? प्रहलाद के कारण ही। अन्यथा कितने हिरण्यकश्यप होते हैं, होते रहते हैं।"

Since when is the holy festival of Holi celebrated? :-

    नास्तिकता विध्वंसात्मक है। आस्तिकता सृजनात्मक है। और आस्तिकता और नास्तिकता में जब भी संघर्ष होगा, नास्तिकता की हार सुनिश्चित है। हां, आस्तिकता असली होना चाहिए। कभी अगर आप नास्तिकता को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि आस्तिकता नकली है। कभी अगर आप नास्तिकता  को जीतता हुआ देखो तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि आस्तिकता नकली है। नकली आस्तिकता से तो असली नास्तिकता भी जीत जाएगी, कम-से-कम असली तो है! इतना सत्य तो है वहां, कि असली है। सत्य ही जीतता है।

   प्रहलाद अपने गीत गाए चला गया । अपनी गुनगुन उसने जारी रखी। अपने भजन में उसने अवरोध न आने दिया। पहाड़ से फेंका, पानी में डुबाया, आग में जलाया--लेकिन उसकी आस्तिकता पर आंच न आई। उसके आस्तिक प्राणों में पिता के प्रति दुर्भाव पैदा न हुआ। वही मृत्यु है आस्तिक की। जिस क्षण तुम्हारे मन में दुर्भाव आ जाए, उसी क्षण आस्तिक मर गया।

  नास्तिकता विध्वंसात्मक है। यही अर्थ है कि हिरण्यकश्यप की बहन है होलिका। हिरण्यकश्यप की बहन है होलिका - वह बहन है, वह छाया की तरह साथ लगी है।आश्चर्य तो यही है कि प्रह्लाद सभी जगह बच जाता है और प्रभु के गुण गाता है। आश्चर्य मत करो। जिसे प्रभु का गुणगान आ गया, जिसने एक बार उस स्वाद को चख लिया, उस फिर कोई आग दुखी नहीं कर सकती। जिसने एक बार ईश्वर का सहारा पकड़ लिया, फिर उसे कोई बेसहारा नहीं कर सकता। आश्चर्य मत करे। आश्चर्य होता है, यह स्वाभाविक है। पर आश्चर्य मत करे।

    स्वभावतः तब से इस देश में उस परम विजय के दिन को हम उत्सव की तरह मनाते रहे हैं। होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से न मिलेगा। रंग,गुलाल है। आनंद उत्सव है। तल्लीनता का, मदहोशी का, मस्ती का, नृत्य का, नाच का--बड़ा सतरंगी उत्सव है। हंसी के फव्वारों का, उल्लास का, एक महोत्सव है। दीवाली भी उदास है, होली के सामने। होली की बात ही और है। ऐसा नृत्य करता उत्सव पृथ्वी पर कहीं नहीं है। ठीक भी है। एक गहन स्मरण आपके अंदर जगता रहे कि इस जगत में सबसे बड़ी विजय नास्तिकता के ऊपर आस्तिकता की विजय है, कि सदा-सदा बार-बार आप याद करते रहो कि आस्तिकता यानी आनंद।

   आस्तिकता उदासी का नाम नहीं है। अगर आस्तिक उदास मिले तो समझना कि चूक हो गई है; बीमार है, आस्तिक नहीं है। अगर आस्तिक नृत्य से भरा हुआ न मिले तो समझना कि कहीं राह में भटक गया। कसौटी यही है।

   धर्म उदासी नहीं है--नृत्य, उत्सव है। और होली इसका प्रतीक है। इस दिन "ना' मरा और "हां' की विजय हुई। इस दिन विध्वंस पर सृजन जीता। इस दिन अतीत पर वर्तमान विजयी हुआ। इस दिन शक्तिशाली दिखाई पड़नेवाले पर निर्बल-सा दिखाई पड़नेवाला बालक जीत गया। नये की, नवीन की, ताजे की विजय--अतीत पर, बासे पर, उधार पर। और उत्सव रंग का है। उत्सव मस्ती का है। उत्सव गीतों का है।

  धर्म उत्सव है- उदासी नहीं। यह याद रहे। और आपको नाचते हुए, परमात्मा के द्वार तक पहुंचना है। अगर रोओ भी तो खुशी से रोना। अगर आंसू भी बहाओ तो अहोभाव के बहाना। आपका रुदन भी उत्सव का ही अंग हो, विपरीत न हो जाए। थके-मांदे लंबे चेहरे लिए, उदास, मुर्दों की तरह, आप परमात्मा को न पा सकोगे, क्योंकि यह परमात्मा का ढंग ही नहीं है। जरा गौर से तो देखो, कितना रंग उसने लिया है । आप बेरंग होकर भद्दे हो जाओगे। जरा गौर से देखो, कितने फूलों में कितना रंग! कितने इंद्रधनुषों में उसका फैलाव है । कितनी हरियाली में, कैसा चारों तरफ उसका गीत चल रहा है। पहाड़ों में, पत्थरों में, पक्षियों में, पृथ्वी पर, आकाश में--सब तरफ उसका महोत्सव है । इसे अगर आप गौर से देखोगे तो आप पाओगे, ऐसे ही हो जाना उससे मिलने का रास्ता है।

summary of holi

   गीत गाते कोई पहुंचता है, नाचते कोई पहुंचता है--यही भक्त्ति का सार है।

यही सार है पवित्र होली के उत्सव का। 

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