भारतीय शास्त्रों में केवल कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या को ही दीपावली नहीं कहते,अपितु पूरे कार्तिक मास को "लक्ष्मी मास"( lakshmi maas ) या "दीपावली मास" कहा गया है, कई साधकों ने तो कार्तिक के तीस दिनों में तीस प्रयोग सम्पन्न किये और रंक से राजा बन कर दिखा दिया कि यदि कोई साधक पक्का निश्चय कर ले तो वह अद्वितीय रूप से लक्ष्मी जी को सिद्ध कर सकता है।
मनुष्य की दरिद्रता उसके जीवन का अभिशाप है, निर्धन व्यक्ति हर क्षण मरता है। और हर क्षण जन्म लेता है। जब कोई व्यक्ति दिये हुए कर्जे को वापिस प्राप्त करने के लिए उसके पास पहुंचता है । तो वह एक तरह से अपने आपको दुखी मन से मृत्यु के करीब ही समझता है,जब वह अपने बच्चे की फीस समय पर जमा नहीं करा पाता, या बच्चों की आवश्यकता पूरी नहीं कर पाता, या पति या पत्नी की इच्छाओं को पूर्णता नहीं दे पाता,तो वह अपने आपको कमजोर, वेबस और मृतवत सा समझने लग जाता है, क्योंकि आज पूरे संसार का ढांचा आर्थिक धरातल पर स्थित है।
जीवन के सारे कार्य अर्थ के चारों ओर सिमट कर रह गये हैं, जीवन में आर्थिक दृष्टि से उन्नति प्राप्त करना या समृद्धि प्राप्त करना एक तरह से जीवन को पूर्णता देना है ।
क्यों हम लोग एक विचार दोहराए चले जाते हैं,अधिक श्रम, परिवार में हो सदस्यों की संख्या ज्यादा ????
परन्तु श्रम से ,परिवार के सदस्यों की अधिक संख्या से धन आगमन होगा तो वे इस विषय में बड़े ही मजे से समझियेगा। कि यदि परिश्रम से ही घर में लक्ष्मी आती तो मजदूर हमसे ज्यादा परिश्रम करते हैं, आठ घण्टे पत्थर उठाता है । पर महीने के अन्त में उसके ऊपर कर्जा ही होता है, ऐसे सैकड़ों परिवार है जिसमें परिवार के आठ-दस सदस्य बराबर परिश्रम करते हैं, पर फिर भी अन्त में कुछ भी नहीं बचता।
आप सभी पाठक गण इस बात को अनुभव करेंगे और यदि सजग दृष्टि से समाज के चारों ओर दृष्टि डालेंगे, तो यह बात महसूस करेंगे। परिश्रम से या ज्यादा परिवार के सदस्य होने से घर में लक्ष्मी स्थिर नहीं हो सकती और न लखपति या करोड़पति बना जा सकता है ।
कई बार व्यक्ति परिश्रम करता है,भाग-दौड़ करता है, चौबीस घण्टे कार्य या व्यापार में जुटा रहता है, फिर भी वह आर्थिक दृष्टि से सफलता प्राप्त नहीं कर पाता, व्यापार में बाधाएं आती रहती हैं, शत्रु हावी रहते हैं,ओर प्रमाणिक दृष्टि से जो सम्पन्नता बनी रहनी चाहिए। दुर्भाग्य की वजह से वह सम्पन्नता नहीं आ पाती। ऐंसी स्थिति में एक ही उपाय रह जाता है कि साधनाओं के माध्यम से आर्थिक पक्ष को पूर्णता दी जाए।
अखण्ड धन समृद्धि की प्राप्ति की साधना में आवश्यक
किसी भी लक्ष्मी साधना ( lakshmi sadhna in hindi) में कुछ वस्तुओं की जरूरत पड़ती ही है, क्योंकि मन्त्र का सीधा सम्बन्ध उस उपकरण से ही झंकृत हो सकता है, इसलिए उपकरण के चयन में सावधानी बरतनी चाहिए।
1)कोई भी वस्तु शुद्ध हो,
2)प्रामाणिक हो,
3)मन्त्रों से सिद्ध होकर प्राण प्रतिष्ठा युक्त हो
तो निश्चय ही सफलता मिल जाती है,इस प्रकार की साधनाएं पुरुष या स्त्री, बालक या वृद्ध कोई भी कर सकता है , परिवार में कोई एक व्यक्ति साधना कर सफलता प्राप्त करता है, तो उसका लाभ पूरे परिवार को निश्चित्त ही प्राप्त होता है ।
भारतीय धर्म शास्त्रों में दीपावली पर्व को विशेष महत्वपूर्ण माना है, क्योंकि गृहस्थ जीवन का आधार धर्म और अर्थ की अधिष्ठात्री देवी जगत जननी मां लक्ष्मी है,जिनका यह पावन पर्व है,अतः इस पर्व पर कुछ विशेष प्रयोग किये जा सकते हैं अर्थात साधक दीपावली की रात्री को विशेष साधनाएं सम्पन्न कर स्वयं के जीवन मे सम्पन्नता प्राप्त कर सकता है।
Maha lakshmi pujan महालक्ष्मी पूजन साधक को पूर्ण निष्ठा,परम विश्वास और श्रद्धा के साथ करना चाहिए। यह पूजन रात्री को ही सम्पन्न किया जा सकता है।शास्त्रों में ऐसी मर्यादा है कि दीपावली की रात्री के दिन बृषभ या सिंह लम्न में लक्ष्मी पूजन किया जाये तो वह ज्यादा उचित रहती है। क्योंकि दोनों ही स्थिर लग्न है, और स्थिर लग्न में महालक्ष्मी की पूजन करने सें घर में स्थिरता आती है तथा धन-धान्य समृद्धि में स्थायित्व प्राप्त होता है।
कैसे पूर्व के ऋषियों के पास सम्पन्नता थी।
आप जानते हैं कि
ऋषि वशिष्ठ जी तो अकेले ऋषि थे। जो एक समय भारत में सर्वाधिक सम्पन्न व्यक्तित्व थे, विश्वामित्र के पास इतनी अधिक सम्पत्ति थी कि वह इन्द्र के राज्य को खरीदने की सामर्थ्य रखते थे,और उनका आश्रम उस समय पूरे भारतवर्ष में सर्वाधिक सम्पन्न और धन सम्पन्न था। गोरखनाथ के पास इतना अधिक स्वर्ण था कि जिसको तोला जाना सम्भव ही नहीं था। और न गिनती करना ही। नागार्जुन अपने आपमें सर्वाधिक सम्पन्न व्यक्तित्व थे ।
और इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि
इन सभी ऋषियों के न कोई परिवार या न कोई लम्बा-चौड़ा व्यापार, न कोई ऊंची,नौकरी और न कोई अन्य कारोबार, इसके बावजूद भी वे अपने-अपने समय के सर्वाधिक सम्पन्न व्यक्ति थे ।।
अब जानते हैं कैसे ये सम्पन्न व्यक्ति हुए :-
ये सर्वाधिक सम्पन्न व्यक्ति इसलिए थे कि इनके पास कुछ ऐसी युक्तियां थी, कुछ ऐसे तन्त्र, मन्त्र या गोपनीय विधियां थीं, जिसके माध्यम से ये लक्ष्मी को अपने घर में आवद्ध कर सकते थे, उसे स्थायित्व देने के लिए बाध्य कर सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी।
जीवन मे लक्ष्मी जी ( lakshmi ji ) की अनिवार्यता
परन्तु इसमें भी कोई दो बात नहीं कि लक्ष्मी की अनिवार्यता (lakshmi sadhna in hindi ) आज ही नहीं अपितु पिछले कई हजारों बर्षो से लोगों ने अनुभव की है, और उसे स्थिर करने के कई प्रयत्न किये हैं।
1) कुछ ने सोना जमीन में दबा कर,
2)कुछ ने ब्याज पर घन देकर,
3)जमीनों के संग्रह को बढ़ाकर,
4)खेतियों-खलियानों के माध्यम से,
5)नोकरी करके ,
6)व्यवसाय करके तो कुछ ने आलीशान भवन बना कर और भी भिन्न-भिन्न , उपाय अपने बुढ़ापे की निश्चिन्तता देने का प्रयास किया है।
किन्तु मनुष्यों के ये सभी प्रयास मृगमरीचिका ही सिद्ध होते नजर आते हैं,जब विपरीत समय आता है, तो एक ही झटके में मकान बिक जाते हैं, सोना समाप्त हो जाता है और खाने के भी लाले पड़ जाते हैं।
आपको जानकर खुशी होगी कि भारतीय शास्त्रों में एक स्वर से यह कहा गया है कि धनाड्य होना अपने आप में मानव जीवन की उच्चतम सफलता है, एक दष्टि से देखा जाय तो यह पूर्णता और निश्चिंतता है। मै यह बात दुखी मन से लिख रही हूँ कि - इसके विपरीत गरीबी और निर्धनता को जीवन का अभिशाप माना गया है, निर्धन व्यक्ति रोज सुबह अन्म लेता है, और रोज रात को मरता है, मरता" शब्द में इसलिये कर रही हूँ, कि जब उसके दरवाजे पर कोई व्यक्ति अपना कर्जा मांगने के लिए आता है तो वह अपने आप को सर्वाधिक अपमानित और मृतवत् अनुभव करता है, जब उसके किसी वस्तु की याचना करते हैं ओर वह पूरी नहीं कर पाता तो सही अर्थों में वह स्वयं अपनी नजरों में गिर जाता है, और जिन्दगी उसे, श्रापवत् अनुभव होती है, बीमारी या कठिन क्षणों में जब उसे कहीं से कुछ भी प्राप्त नहीं होता, कर्ज नहीं मिलता तो उसे ऐसा लगता है, कि जैसे कहीं जाकर आत्म हत्या कर ले, इसीलिए मैंने कहा है कि गरीब आदमी नित्य रात को मरता है।
साधारण गृहस्थ ही नहीं अपितु ऋषि, मुनि, योगी, सन्यासी भी लक्ष्मी की अनिवार्यता को अनुभव करते थे,शायद आप जानते होंगे ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में इतनी सम्पन्नता थी, कि दशरथ का सारा राज्य तुच्छ जैसा था, पच्चीस हजार शिष्यों को वह नित्य सुबह-शाम भोजन कराते थे।
कहानी बड़ी ही आश्चर्य में डालती है कि जब दशरथ को कैकेय नरेश के विरुद्ध युद्ध करने की मजबुरी हुई तो सैन्य संगठन के लिए दशरय जैसे राजा को भी वशिष्ठ से याचना करनी पड़ी।
मेरे यहां लिखने का तात्पर्य यह है कि धन की आवश्यकता गृहस्थ व्यक्तियों को ही नहीं अपितु योगियों और संन्यासियों को भी रही है, इस छोटे से उदाहरण में यह स्पष्ट हो जाता है कि परिश्रम करने और राजा बनने के बावजूद भी दशरथ को एक ऋषि से धन की याचना करनी पड़ी, जिसके पास आय के कोई स्रोत नहीं थे।
फिर किस प्रकार से वशिष्ठ ने दशरथ की याचना को पूरी की । निश्चित ही अवश्य ही वशिष्ठ जी के पास कुछ ऐसी साधना सिद्धियां होगी, जिसकी वजह से वशिष्ठ जी ने लक्ष्मी जी को अपने आश्रम में आबद्ध किया होगा।
यह कुछ पिछले पांच हजार से ज्यादा वर्षों का इतिहास बता रहा है कि पूरे समाज के वर्गों में यदि हम अनुपात निकालें तो मात्र दो या तीन व्यक्ति ही सही अर्थों में धनाढ्य कहे जा सकते हैं ।
जो लखपति से अरबपति होते हैं, बाकी 97 प्रतिशत लोग तो मात्र जीविकोपार्जन ही कर पाते हैं, इसके विपरीत यदि हम
योगियों,
संयासियो,
तिब्बत के लामायों,
जैनाचार्यों,
बोद्ध के बिहारों
साधकों
इत्यादि पर दृष्टि डालें और अनुपात देखें तो दो-तीन आश्रम ही गरीब और निर्धन हो सकते हैं, इसके विपरीत 97 प्रतिशत आश्रम ओर मन्दिर लखपति से करोड़पति से भी बढ़कर होते हैं।
इस अनुपात से यह बिल्कुल ही स्पष्ट हो जाता है कि परिश्रम करने से लक्ष्मी जी घर में आबद्ध नहीं हो सकती,भाग्य के भरोसे लक्ष्मी जी को कैद नही किया जा सकता।
आइये जानते हैं लक्ष्मी साधना से सिद्धि तक की यात्रा पूर्ण करने वाले ऋषियों के अनुभव :-
विश्वामित्र ऋषि के अनुसार :-
विश्वामित्र अपने आप में एक कान्तिकारी व्यक्तित्व सम्पन्न ऋषि थे। सही अर्थों में वे गृहस्थ थे,यहां तक कि विश्वामित्र के बारे में कहा जाता है कि
जिसके सीने में पौरुष का सागर लहराता हो,
जिसकी आंखों में एक विशेष चमक
जिसमें प्रकृति पर पूर्णतः नियन्त्रण प्राप्त करने की शक्ति क्षमता थी,
जो कठिन चुनौतियों को भी हंस कर स्वीकार करता ओर उन चुनौतियों पर पूर्ण विजय प्राप्त करता था।
ऐंसे विश्वामित्र ऋषि थे।
ऐंसे ऋषिवर ने लक्ष्मी की इस चंचल वृत्ति को पहचाना, उनके 'लक्ष्मी सपर्या' ग्रन्थ में इस विधि का विस्तार से विवरण है।
वे पहले व्यक्ति थे, जिसने लक्ष्मी पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की, उन्होंने पहली बार लक्ष्मी के तीनों स्वरूपों को स्पष्ट किया और उन्होंने बताया कि लक्ष्मी के सामने गिड़गिड़ाने से, हाथ जोड़ने से, प्रार्थना करने से लक्ष्मी मैया मदद नहीं कर सकती, उसका तो प्रेमिका स्वरूप ही महत्वपूर्ण है ।
प्रेमिका दो रूपों से ही नियन्त्रित हो सकती है,
या तो अत्यधिक स्नेह और प्यार से,
या तो
प्रबल पौरुष से ।
विश्वामित्र ने कहा कि प्रबल पौरुष के माध्यम से ही प्रेमिका को हमेशा हमेशा के लिए अपने घर में आबद्ध किया जा सकता है,क्योकि पौरुष तन्त्र के माध्यम से ही सम्भव है, तंत्र का तात्पर्य है-व्यवस्थित तरीके से कार्य सम्पादित करना, और यदि सही तरीके से लक्ष्मी से सम्बन्धित प्रयोग सम्पन्न किया जाय तो लक्ष्मी जी को भी मजबूरन घर में आना ही पड़ता है।और जन्म-जन्म के लिए घर में कैद होकर रहना ही पड़ता है।
मत्स्येन्द्रनाथ की लक्ष्मी प्राप्ति हेतु साधना | lakshmi prapti sadhna
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो गोरखनाथ से भी ज्यादा सिद्ध योगी हुए हैं,तन्त्र के साक्षात् अवतार थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में लक्ष्मी आबद्ध प्रयोग को देकर संसार पर महान उपकार किया है। इनका एक सुप्रसिद्ध प्रयोग कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सम्पन्न किया जाता है, इस दिन को "अहोई दिवस" या "आठा दिवस" कहा जाता है, यह शब्द "अष्ट लक्ष्मी" का अपभ्रंश है, अतः साधकों को चाहिए कि इस दिन का अवश्य ही सदुपयोग करें।
गोरखनाथ के अनुसार लक्ष्मी साधना :-
गुरु गोरखनाथ अपने आप में एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व थे।उन्होंने सबसे पहले संस्कृत भाषा और उसके जटिल विधि-विधान को छोड कर सरल प्राकृत भाषा में मन्त्र बनाये।उन मन्त्रों को सिद्ध करके हजारों-लाखों साधकों को बता दिया कि इन मन्त्रों में भी उतनी ही ताकत है, जितनी संस्कृत मन्त्रों में, उन्होंने जटिल और कठिन साधना पद्धतियों को छोड़ कर सरल और आसान रास्ता तैयार किया और उसके माध्यम से विविध साधनाएं सिद्ध कर अपने शिष्यों को और उस समय के लोगों को बता दिया कि ये साधनाएं भी अपने आप में सही हैं,प्रमाणिक हैं और इन साधनाओं के माध्यम से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है।
आइये जानते हैं कैसे लाखों योगी गोरख जी के अनुयायी बने ??? -
एक समय की बात है जब गुरु गोरखनाथ का बहुत विरोध हुआ क्योकि उन्होंने पहली बार संस्कृत भाषा को छोड़ कर सरल भाषा को अपनाया था। पंडितों के जटिल क्रिया - कलापों का विरोध कर जनसुलभ साधना साहित्य का निर्माण किया था और इन साधना पद्धतियों के माध्यम से वे जन-जन में लोकप्रिय हो गये थे ।
उन्हीं दिनों गोरखपुर के पास "मछमरवा" ग्राम में गुरु गोरखनाथ का विरोध करने के लिए लगभग दो लाख से भी ज्यादा योगी,यती, संन्यासी और साघु एकत्र हुए और उस सम्मेलन में गोरखनाथ को भी बुलाया,उनके आने पर सभी योगियों ने चुनोती दिया कि आपने जो नवीन साधना पद्धतियां निकाली हैं, वे प्रामाणिक नहीं हैं, उनके माध्यम से कार्य सिद्ध नहीं हो सकते । गुरु गोरखनाथ ने चुनोतियों को स्वीकार किया और उन सबके सामने नवीन लक्ष्मी साधना पद्धति के माध्यम से "स्वर्ण वर्षा" कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया, यही नहीं अपितु साबर मन्त्रों के माध्यम से भी
भैरव साधना।
बगलामुखी साधना ।
आदि सिद्ध करके और उनको सबके सामने प्रत्यक्ष करके यह बता दिया कि ये साबर मन्त्र भी अपने आपमें प्रामाणिक और अचूक है ।
इसके बाद से ही वे "गुरु" गोरखनाथ कहलाये और हजारों लाखों शिष्य उनके पीछे हो लिए, उन्होंने सर्वथा नवीन और सुगम साधना पद्धतियों के माध्यम से प्रत्येक साधना को सिद्ध करके यह स्पष्ट कर दिया कि संस्कृत मन्त्रों की अपेक्षा साबर मन्त्र जल्दी सिद्ध हो सकते हैं।
जब लक्ष्मी जी गुरु गोरखनाथ के मठ में आने को बाध्य हुई
बड़ी ही रोचक कथा यह है कि :-
प्रारम्भ में गुरु गोरखनाथ का मठ दरिद्र अवस्था में था,उनके शिष्यों को भिक्षा के अन्न पर जीवित रहना पड़ता था। और परिस्थितियों के अनुसार तथा गोरखनाथ का विद्रोही व्यक्तित्व होने के कारण उन शिष्यों को साधारण लोग अपमानजनक दृष्टि से देखते थे, उनको भिक्षा भी नहीं डालते थे,जब शिष्यों ने गोरखनाथ से इस दुर्व्यवस्था की बात बताई -" तो गुरु गोरखनाथ विचलित हो गये और उन्होंने शाबर पद्धति के अनुसार एक अनूठा प्रयोग "महा विजय पताका प्रयोग,"सम्पन्न किया जो कि लक्ष्मी प्राप्ति के लिए,दरिद्रता मिटाने के लिए और घर में लक्ष्मी को चिरस्थाई रूप से आबद्ध करने के लिए सर्वोत्तम है।"
इस प्रयोग के बाद तो गोरखनाथ के मठ में लक्ष्मी जी सशरीर प्रगट होकर विद्यमान हो गई और मठ में धन की वर्षा जैसी होने लगी,आर्थिक दृष्टि से पूरे भारत मे यह मठ प्रशंसनीय होने लगा, किसी प्रकार की कोई कमी और आभाव भी नहीं रहा और लक्ष्मी जी को स्वयं कहना पड़ा- "कि तुम्हारी यह साधना अपने आपमें अत्यन्त महत्वपूर्ण है।"
अंत मे लिखना चाहती हूं कि तंत्र अपने आप में अत्यन्त ही सुन्दर और अनुकूल शब्द है,तन्त्र का तात्पर्य किसी भी कार्य को व्यवस्थित रूप से करना है। "यदि हम कोई साधना या अनुष्ठान करते हैं तो तन्त्र हमें इस बात का बोध कराता है कि उस साधना या अनुष्ठान को किस प्रकार से सम्पादित करना है, जिससे कि निश्चित रूप से कार्य की सिद्धि प्राप्त हो सके ।"
विश्वामित्र ने अपनी संहिता में लिखा है कि जो काम मन्त्रों के माध्यम से नहीं हो सकते, वे तन्त्र के माध्यम से निश्चित रूप से हो ही जाते हैं । गुरु गोरखनाथ ने "गोरक्ष संहिता" में स्पष्ट बताया है कि कलिकाल में सिद्धि केवल तन्त्रो के माध्यम से ही सम्भव है।
विश्व प्रसिद्ध संन्यासी आदि शंकराचार्य ने बताया है, कि यदि व्यक्ति शुद्धता पूर्वक तन्त्र के माध्यम से सिद्धि या साधना करता है,तो तुरन्त सफलता मिलती है। अनुकूल परिणाम प्राप्त हो सकते हैं और वह जिस प्रकार से भी चाहे देवी या देवता को प्रत्यक्ष कर सकता है।
आगे चल कर कुछ पाखण्डी साधुओं ने तन्त्र का स्वरूप विकृत कर दिया। उन्होंने मद पीना, मांस खाना और चरस और सुरमे इत्यादि के माध्यम से अपनी आँखों को लाल रखना ही तन्त्र मान लिया है, इससे जन साधारण में तन्त्र के प्रति डर बैठ गया और उन्होंने तन्त्र का मतलब वशीकरण, सम्मोहन और मारण ही समझ लिया,जबकि तत्र का तात्पर्य पूर्णता के साथ साधना को सिद्ध करना है।
वेदों में भी तन्त्र की बहुत प्रशंसा की गई है, पौराणिक काल में तन्त्र को ही साधना का आधार माना है, उन दिनों लक्ष्मी प्राप्ति और लक्ष्मी जी से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण प्रयोग उजागर हुए, जिसके माध्यम से जन्म-जन्म की दरिद्रता मिटाई जा सकती है, जीवन को सुख एवं वैभव युक्त बनाया जा सकता है,और लक्ष्मी जी को चिरस्थायी रूप से घर में स्थापित किया जा सकता है।
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