Guru nanak jayanti | नानक एक रहस्य | गुरुनानक जयंती | कार्तिक पूर्णिमा | प्रकाश पर्व | प्रकाश उत्सव
आज हम Guru nanak jayanti के इस पावन दिन पर विश्व के एक प्रतिभावान व्यक्तित्व के विषय में जानते हैं जो रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गांव में,उत्तम क्षण 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन जन्मा।यह प्रतिभावान व्यक्तित्व पिता कालू दास मेहता का सपूत था,माँ तृप्ति देवी का लाल था,यह श्रेष्ठ चिंतक नानकी के प्रिय भाई भी हैं,वे श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारे (Kartarpur Sahib Gurudwara) की नींव रखने वाले संत भी हैं सिख जनो के प्यारे गुरु भी हैं,सुलक्खनी देेेवी के प्रिय पति तथा पुत्र श्रीचंद,पुत्र लख़्मी चन्द के प्रिय पिता के रूप में सदग्रहथ भी हैं एवं जप सिद्ध योगी भी हैं,अर्थात दोनों एक साथ हैं।Guru nanak jayanti
जिन्होंने भारत के सामाज मे व्याप्त कुरीतियों को दूर किया और सामाज सुधारक भी बन गये,इतना ही नही एक मानवता को गहराई से जानने वाला दार्शनिक,अपने परमात्मा के लिए गाने वाले एक प्यारा कवि,एक कुशल यात्री के रूप में मित्र लहना,मरदाना,बाला,रामदास जी के सहयात्री जिन्होंने 1521 में बहुत सी यात्राएं की,उन्हें सभी लोग बड़े श्रद्धा से,प्यार से,नानक,गुरु नानक,गुरु नानक देव जी,बाबा नानक और नानकशाह भी कहते हैं।
वे दस सिख गुरुओं में से पहले और सिख धर्म के संस्थापक थे। गुरु नानक जी का जन्म कार्तिक महीने की पूर्णिमा के दिन हुआ था। गुरु नानक जी का जन्मदिन दुनिया भर में 'गुरु नानक गुरुपर्व' और प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है।Guru nanak jayanti
यह एक सम्पूर्ण जीवन की मनोदशाओं को बदलने वाला अत्यंत ही कीमती शब्द के रहस्य को जरूर पढिये
जानते हैं प्रथम बार गुरु नानक ने कैसे ईश्वर को पाया
रोचक रहस्य
एक अंधेरी रात थी,जो भादों की अमावस की रात थी। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के समय हवा के झोंके। उस समय गांव पूरा सोया हुआ। बस,चारों ओर नानक के गीतों की गूंज फैल रही थी।
रात देर तक वे गाते रहे,अब तो नानक जी की मां डर ही गई क्या हो गया मेरे बेटे को,अब तो आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए हैं। नानक के कमरे का दीया अभी भी जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने खटखट कर दी और कहा, बेटे ! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई। नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पिहु-पिहु।
तत्क्षण नानक ने कहा, सुनो मां ! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ। अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊं ? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा। और इसका प्यारा तो बहुत पास है, मेरा प्यारा बहुत दूर है-जन्मों-जन्मों तक भी गाता रहूं तो ही उस तक पहुंच सकूंगा। रात और दिन का हिसाब नहीं रखा जा सकता है। नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।
नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया। गीतों से पटा है,मार्ग नानक जी का। इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है।
एक जबरदस्त विषय समझना अवश्यक है कि नानक जी ने कभी योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान भी नहीं किया। नानक जी ने सिर्फ गाया अपने प्रेमी के लिए। और गा - गा कर ही पा लिया। वाह गुरु वाह लेकिन गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से गाया , कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।
जब भी कोई सम्पूर्ण प्राण से किसी भी कृत्य को करता है, वही कृत्य मार्ग बन जाता है।आप ध्यान भी करो अधूरा-अधूरा, तो भी न ईश्वर के करीब न पहुंच पाओगे।
जीवन मे एक प्रयोग जरूर करिये
आप पूरे हृदय से,सारी समग्रता से, एक गीत भी गा दो, एक नृत्य भी कर लो, तो भी आप ईश्वर के करीब पहुंच जाओगे। क्या?? आप करते हो, यह प्रश्न तो है ही नहीं, पूरी समग्रता से करते हो या अधूरे-अधूरे करते हो, यही सवाल है????
ईश्वर के रास्ते पर नानक जी के लिए गीत और पुष्प ही बिछे हैं। इसलिए उन्होंने जो भी कहा है, गा कर कहा है। बहुत मधुर है उनका मार्ग रससिक्त है !
गहरी बात
सुरत कलारी भई मतवारी, मधवा पी गई बिन तौले।
नानक जी वही हैं, जो मधवा को बिना तौले पी गए हैं। फिर जीवन भर गाते रहे। ये गीत साधारण गायक के नहीं हैं। ये गीत उसके हैं जिसने ईश्वर को जाना है।
जपुजी का रहस्य mistry of japuji
जपुजी का जब जन्म हुआ--यह मिलन के बाद उनका पहला उदघोष है। पपीहा ने पा लिया अपने प्यारे को। पियू-पियू की रटन पूरी हुई। मिलन हो गया। उस मिलन से जो पहला उदघोष हुआ है, वह "जपुजी" है। इसलिए श्रीमान नानक महोदय जी की वाणी में जो मूल्य जपुजी का है वह किसी और बात का नहीं हो सकता है । जपुजी ताजी से ताजी सूचना हैेे, ईश्वर के लोक की। वहां से लौट कर उन्होंने जो पहली बात कही, वह यही है। ईश्वर के जगत से इस जगत में आ कर, जो पहले शब्द निर्मित हुए वही जपुजी है।
आइये इस गहरी घटना को भी समझ लेते हैं
एक समय की बात है कि जब नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ श्रीमान नानक महोदय जी नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं??? रात ठंडी है,अंधेरी है। दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए।अब प्रतीक्षा दुखदायी होने लगी,दस-पांच मिनट तो मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गया कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ने लगा कि कहां हो? बोलो, आवाज दो! ऐसा उसे लगा कि नदी की लहर-लहर से एक आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक जी की कोई सूचना नहीं थी। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई।
श्री मान नानक महोदय जी को सभी लोग प्यार करते थे। कुछ होने की संभावना सभी को नानक जी में दिखाई पड़ती थी । श्री मान नानक महाशय जी की मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। लेकिन फूल अभी भी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है न ! अब तो अति हो गई सम्पूर्ण गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला। तीन दिन बीत गए। लोगों ने मान ही लिया कि श्री मान नानक महोदय को कोई जानवर खा ही गया हैं । शायद वे कहीं डूब गए, बह गए,या किसी खाई-खड्ड में उलझ गए। अब तो हर व्यक्ति ने मान ही लिया था, कि नानक जी मर गए। रोना-पीटना हो गया। घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा।
और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी japuji उनका पहला वचन है। यह घोषणा उन्होंने की।।
नानक जब तीन दिन के लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने उन्हें कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है--परमात्मा से लौट कर।
जपुजी की उपरोक्त तो कहानी है। इसके प्रतीकों को भी समझ लीजिये।
प्रथम, यह कि जब तक हम न खो जाएं, जब तक हमारा अहंकार न खो जाए। तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन आप का अहंकार नहीं बचना चाहिए। आपका अहंकार खो जाना ही उसका होना है। आपका अहंकार ही आपकी और ईश्वर की मैत्री में अड़चन है। आप ही दीवाल हो। तो यह जो नदी में खो जाने की कहानी है--आपको भी ऐंसे ही खो जाना पड़ेगा। आपको भी डूब जाना पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं।
इसलिए आपको जानकर हैरानी होगी कि, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं। तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है। इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, सम्पूर्ण रुप से मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर ही गए।
जब भी कोई संन्यासी होता है, घर के लोग समझ लेते हैं, मर गया। जब भी ईश्वर की खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते हैं, खत्म हुआ। क्योंकि अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी श्रंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए तीन दिन का प्रतीक है। तीन दिन बाद नानक जी लौट आए। जो भी खोता है वह लौट आता है, लेकिन हमेशा नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन जब मार्ग पर जा रहा था तब वह प्यासा था, निश्चित ही आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब तो भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा में लीन होता है, जाते समय भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार संपदा होती है बांटने को। जपुजी पहली भेंट है।
ईश्वर के सामने प्रकट होना, अपने प्यारे को पा लेना, इन्हें आप बिलकुल ही प्रतीकात्मक मानना, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। क्योंकि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ नहीं है, जिसके सामने आप प्रकट हो जाओगे। लेकिन यह सब कहने की बात है, तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं है। जब आप मिटते हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; परमात्मा निराकार शक्ति है।
आप उसके सामने कैसे हो सकोगे? जहां आप देखोगे, वहीं वह है। जो आप देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस आप मिट जाओ, आंख खुल जाए।
अहंकार आपकी आंख में पड़ी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। लेकिन ईश्वर प्रकट ही था, परन्तु आप तो मौजूद न थे। नानक जी मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, आप भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
अब तो नानक जी लौटे, तो परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।
अब हम जपुजी को समझने की कोशिश करें।
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।
नानक कहते हैं, इक ओंकार सतिनाम | ek om kar stnam
यह सत शब्द भी समझ लेने जैसा है। संस्कृत में दो शब्द हैं। एक सत और एक सत्य। सत का अर्थ होता है अस्तित्व। और सत्य का अर्थ होता है truth। दोनों में बड़ा अंतर है। दोनों की मूल धातु तो एक है। सच, सत्य, सत, सब की मूल धातु एक है। लेकिन थोड़ा सा अंतर है,उस अंतर को समझ लेना आवश्यक हैं। हमेशा ध्यान रखिये सत्य तो दार्शनिक की खोज है।इसलिए तो वह खोजता है कि सत्य क्या है? what is truth ? जैसे, 2 और 2 मिल कर 4 होते हैं, यह सत्य है। कि 2 और 2 मिल कर 5 नहीं होते। 2 और 2 मिल कर तीन नहीं होते। 2 और 2 मिल कर 4 होते हैं,यह तो गणित का सूत्र सत्य है, लेकिन सत नहीं है। क्योंकि यह मनुष्य का ही हिसाब है। दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह मनुष्य की ही खोज है। यह सत्य तो है, सत नहीं है।
निश्चित ही आप कभी रात को सपना देखते होंगे,सपना सत तो है, सत्य नहीं है। यह बात सत्य है कि सपना है तो, नहीं तो आप देखोगे कैसे? होना तो है, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि सत्य है। क्योंकि जैसे ही आप उठे , सुबह तो आप पाते हो कि न होने के बराबर है। लेकिन हुआ बिल्कुल सपना घटा तो है।
तो एक बात पक्की हो जाएगी कि दुनिया में ऐसी घटनाएं हैं, जो सत्य हैं और सत नहीं। और ऐसी भी घटनाएं हैं, जो सत तो हैं लेकिन सत्य नहीं। गणित सत्य है, सत नहीं। गणित का एक निष्कर्ष सत्य हो सकता है, सत नहीं। सपना है, सपना सत है, सत्य नहीं।
सत और सत्य में अंतर ???
बडी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि परमात्मा दोनों है--सत भी, सत्य भी। और इसलिए न तो उसे गणित से पाया जा सकता,ध्यान दीजिए जी विज्ञान से उसे नहीं पाया जा सकता, क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को और न ही उसे काव्य, कला,arts से पाया जा सकता है, क्योंकि कला खोजती है सत को। ईश्वर दोनों है, सत+सत्य। इसलिए न तो कला उसे पूरा खोज सकती है और न विज्ञान। दोनों अधूरे हैं।
इसीलिए अध्यात्म जगत की खोज दोनों से पृथक है। अध्यात्म जगत उसकी खोज है, जो दोनों है, एक साथ है। जो इतना सत्य है जितना कि गणित का कोई भी फार्मूला और जो इतना सत है जितनी काव्य की कोई भी धारणा। वह दोनों है भी ,और दोनों नहीं भी है। अब तो अगर आप आधे से देखोगे तो चूक ही जाओगे। अगर आप दोनों को मिला कर देखोगे तो ही ईश्वर को पा सकोगे।
तो जब नानक कहते हैं, एक ओंकार सतिनाम तो इस सत में दोनों हैं--सत्य और सत। उस परम अस्तित्व का नाम--जो गणित की तरह सच है, और जो काव्य की तरह भी सत है, जो स्वप्न की तरह मधुर, और गणित की तरह ठीक-ठीक सही है,जो हृदय की भावना की तरह भी है, और मस्तिष्क की प्रतीति की भांति भी है।
ध्यान दीजियेगा,जहां मस्तिष्क और हृदय मिलते हैं, वहीं धर्म शुरू होता है। अगर मस्तिष्क अकेला रहे, और हृदय को दबा दे, तो विज्ञान पैदा होता है। अगर हृदय अकेला रहे, मस्तिष्क को हटा दे, तो कल्पना का जगत, काव्य, संगीत, चित्र, कला पैदा होती है। और अगर मस्तिष्क और हृदय दोनों मिल जाएं, दोनों का संयोग हो जाए, तो हम ओंकार में प्रवेश करते हैं।
एक गहन शोध लिखती हूँ। चिंतन जरूर कीजियेगा,धार्मिक व्यक्ति वैज्ञानिक से बड़ा वैज्ञानिक, कलाकार से बड़ा कलाकार है, क्योंकि उसकी खोज संयुक्त की है। क्या आप जानते हैं विज्ञान और कला द्वंद्व है??। लेकिन धर्म समन्वय है।
नानक कहते हैं, इक ओंकार सतिनाम।
'वह एक ओंकार स्वरूप, वह सत नाम, कर्ता पुरुष...।'
ये जो शब्द हैं, इन्हें जो ऊपर या औपचारिक रूप से यदि समझा तो भ्रांतियां होंगी।
ज्ञानियों की एक अड़चन है कि शब्द तो उन्हें आपके ही उपयोग करने पड़ते हैं। आपसे बात जो करनी है, आपकी ही भाषा बोलनी पड़ेगी न। और वे जो कहना चाहते हैं, वह भाषा के पार है। जो वे कहना चाहते हैं, वह आपकी भाषा में आ नहीं सकता। आपकी भाषा बहुत संकीर्ण, वह बहुत विराट। जैसे कोई अपने घर में पूरे आकाश को समा लेना चाहे। जैसे कोई अपनी मुट्ठी में सारे प्रकाश को बांध लेना चाहे, ऐसी असमर्थता है। तो आपके ही शब्द उपयोग करने पड़ते हैं।
इन शब्दों के कारण ही इतने संप्रदाय पैदा हो जाते हैं। क्योंकि बुद्ध , नानक से 2000 साल पहले हुए। तो बुद्ध दूसरी भाषा का उपयोग करते हैं, जो प्रचलित थी, जो लोग समझते थे। कृष्ण और दो 2000 साल पहले बुद्ध से हुए। वे और दूसरी भाषा का उपयोग करते हैं, जो लोग समझते थे। मुहम्मद और दूसरी भाषा का उपयोग करते हैं, क्योंकि दूसरी हवा, दूसरा मुल्क, दूसरे ढंग के लोग।
भाषाओं के भेद हैं। भाषा आपके वजह से अलग है, अन्यथा ज्ञानियों में कोई भी भेद नहीं। नानक जी जो भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह नानक के समय समझी जा सकती थी।
तो नानक जी कहते हैं, कर्ता पुरुष। वही बनाने वाला। लेकिन तत्क्षण हमें खयाल आता है कि अगर वही बनाने वाला है, और हम बनाए गए हैं, तो द्वैत हो गया। और नानक जी तो शुरू में ही इनकार कर दिए हैं कि वह एक है। अगर वह बनाने वाला और रचनाकार है, और रचना में भेद है जिसको उसने बनाया, तो द्वैत शुरू हो गया।
हमारी भाषा से अड़चन शुरू होती है। जैसे-जैसे नानक जी आगे बढ़ेंगे वैसे-वैसे अड़चन शुरू होगी। जो उन्होंने पहला शब्द बोला है समाधि के बाद, वह है--इक ओंकार सतिनाम।
सच तो यह है कि पूरा सिक्ख धर्म इन तीन शब्दों में समाप्त हो जाता है। इसके आगे तो आपको समझाने की कोशिश है, अन्यथा बात पूरी हो ही गयी। क्योंकि यदि आप नहीं समझोगे इससे, तो फिर विस्तार करना पड़ता है। विस्तार आपके कारण है, अन्यथा मंत्र तो पूरा हो गया। बात तो पूरी हो गई। इक ओंकार सतिनाम--सब कह दिया। लेकिन आपके लिए तो अभी कुछ भी नहीं कहा गया। इन तीन शब्दों से क्या हल होगा??? कुछ हल नहीं होता। तब आपके भाषा की शुरुआत होती है।
'कर्ता पुरुष--वह बनाने वाला है।'
लेकिन ध्यान रखना, जो उसने बनाया है वह उससे अलग नहीं है। बनाने वाला, बनायी हुई, रचना में छिपा है। कर्ता कृत्य में छिपा है। स्रष्टा सृष्टि में लीन है।
इसलिए तो नानक जी ने गृहस्थ को और संन्यासी को अलग नहीं किया। क्योंकि यदि सृष्टि से अगर कर्ता परमेश्वर अलग है,तो फिर आपको सृष्टि के काम-धंधे से अलग हो जाना चाहिए। जब आपको कर्ता पुुरुष को खोजना है तो कृत्य से दूर हो जाना चाहिए, कर्म से दूर हो जाना चाहिए। फिर बाजार है, दूकान है, काम-धंधा है, उससे अलग हो जाना चाहिए।
श्रीमान नानक जी आखिर तक अलग नहीं हुए। यात्राओं पर जाते थे। और जब भी वापस लौटते तो फिर अपनी खेती-बाड़ी में लग जाते। फिर उठा लेते हल-बक्खर। पूरे जीवन, जब भी वापस लौटते घर, तब अपना कामधाम शुरू कर देते। जिस गांव में वे आखिर में बस गए थे, उस गांव का नाम उन्होंने करतारपुर रख लिया था--कर्ता का गांव।
अगर ईश्वर कर्ता है, तो आप यह मत समझना कि वह दूर हो गया है कृत्य से। एक आदमी मूर्ति बनाता है। जब मूर्ति बन जाती है तो मूर्तिकार अलग हो जाता है, मूर्ति अलग हो जाती है। दो हो गए। मूर्तिकार के मरने से मूर्ति नहीं मरेगी। मूर्तिकार मर जाए, मूर्ति रहेगी। मूर्ति के टूटने से मूर्तिकार नहीं मरेगा। मूर्ति टूट जाए, मूर्तिकार बचेगा। दोनों अलग हो गए। ईश्वर और उसकी सृष्टि में ऐसा फासला नहीं है।
फिर परमात्मा और उसकी सृष्टि में कैसा संबंध है?
वह सम्बन्ध ऐसा है जैसे नर्तक का। एक आदमी नाच रहा है, तो नृत्य है, लेकिन क्या आप नृत्य को और नृत्यकार को अलग कर सकोगे? नृत्यकार घर चला जाए, नृत्य आपके पास छोड़ जा सकेगा? नृत्यकार मरेगा, नृत्य मर जाएगा। नृत्य रुकेगा, फिर वह आदमी नर्तक न रहा। दोनों संयुक्त हैं। इसलिए हिंदु सम्प्रदाय ने बड़े प्राचीन समय से, परमात्मा को नर्तक की दृष्टि से देखा--नटराज । क्योंकि नटराज के प्रतीक में नर्तक और नृत्य अलग नहीं होते।
कवि भी कविता बनाए तो कविता से अलग हो जाता है। मूर्तिकार मूर्ति बनाए, मूर्ति से अलग हो जाता है। मां बेटे को जन्म दे, जन्म देते ही अलग हो जाती है। पिता बेटे से अलग है। लेकिन ईश्वर सृष्टि से अलग नहीं है। सृष्टि में समाया हुआ है। अगर ठीक-ठीक, आपकी भाषा का उपयोग न किया जाए, तो कहना होगा, वह जो स्रष्टा है, वही सृष्टि है। और भी अगर ठीक कहना हो तो, स्रष्टा सृजन की प्रक्रिया है। वह स्वयं सृजन है।
इसलिए नानक जी कहते हैं, कुछ छोड़ कर कहीं भागना नहीं है। जहां तुम हो, वहीं वह छिपा है। इसलिए नानक ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें गृहस्थ और संन्यासी एक है। और वही आदमी अपने को सिक्ख कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो। संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो ।
निश्चित ही अब सिक्ख होना तो बड़ा कठिन कार्य है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना भी आसान है, छोड़ दो, भाग जाओ जंगल। सिक्ख होना कठिन है। क्योंकि सिक्ख का अर्थ है--संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय पर हो। करना दूकान, लेकिन याद ईश्वर की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना।
नानक को जो पहली झलक मिली परमात्मा की, जिसको सतोरी कहें...इस नदी में तीन दिन डूब कर तो जो घटना घटी, वह समाधि की है, उसके बाद तो वे परम पुरुष हो गए। पर उसके पहले अनेक छोटी-छोटी झलकें मिली।
इक ओंकार सतिनाम।
जिसके मन में यह छा गया, उसे कैसा भय? परमात्मा को भय नहीं हो सकता। किसका भय होगा? वही है अकेला। उससे अन्यथा कोई भी नहीं है।
'अकाल भय से रहित, वैर से रहित, कालातीत, अकाल मूरति।'
कालातीत मूर्ति है। समय के पार है।
इसे थोड़ा समझ लीजिये। समय का अर्थ ही होता है परिवर्तन। अगर कोई चीज परिवर्तित न हो तो आपको समय का पता ही न चलेगा। घड़ी में भी समय का पता चलता है क्योंकि कांटा घूमता है। अगर कांटा न घूमे तो समय का पता न चलेगा। चीजें बदल रही हैं। सूरज उगा, दोपहर हो गई, सांझ हो गई। बच्चा था, जवान हो गया, जवान था, बूढ़ा हो गया, स्वस्थ , बीमार हो गया, बीमार, स्वस्थ हो गया। गरीब, अमीर हो गया, अमीर,गरीब हो गया, परिवर्तन है। सब चीजें बदल रही हैं। नदी बही जाती है। इस परिवर्तन में ही समय है। समय का अर्थ ही होता है, दो परिवर्तन के बीच का फासला।
एक विचार जरूर कीजिये
अगर आज सुबह आप उठो और सांझ तक कुछ भी घटना न घटे, कोई परिवर्तन न हो। सूरज खड़ा रहे, जहां था। आपकी उम्र उतनी ही बनी रहे जितनी थी। घड़ी का कांटा न हिले, वृक्ष बूढ़े न हों, पत्ते कुम्हलाएं न। सब ठहर जाए। तो आपको समय का कैसे पता चलेगा? समय होगा ही नहीं।
आपके लिए समय का पता चलता है, क्योंकि आप परिवर्तन से घिरे हो।ईश्वर के लिए कोई समय नहीं, क्योंकि वह सनातन है, शाश्वत है, सदा है। उसके लिए कुछ भी परिवर्तित नहीं हो रहा है। उसके लिए सब ठहरा हुआ है। परिवर्तन अंधी आंख का अनुभव है। परिवर्तन ऐसे है क्योंकि हमें पूरा नहीं दिखाई पड़ रहा है। अगर हमें पूरा दिखाई पड़ जाए तो हमारा परिवर्तन समाप्त हो जाएगा। परिवर्तन के समाप्त होते ही समय खो जाता है। समय परिवर्तन को नापने का माध्यम है। परमात्मा के लिए सब वैसा का वैसा है। कुछ बदलता नहीं। सब ठहरा हुआ है।
'कालातीत, अकाल मूरति, अयोनि, स्वयंभू।'
ईश्वर किसी योनि से पैदा नहीं होता। परमात्मा का न कोई पिता है न कोई मां। और जो भी योनि से पैदा होता है, वह परिवर्तन की दुनिया में प्रवेश कर जाता है। आपको भी अपने भीतर उसी को खोजना है, जो अयोनिज है। यह शरीर तो पैदा हुआ है, मरेगा। यह शरीर तो दो शरीरों के जोड़ से बना है, बिखरेगा। जब वे दो शरीर ही बिखर गए तो यह शरीर कैसे बचेगा जो उनसे मिल कर बना है? लेकिन इसके भीतर अयोनिज भी है, जो गर्भ में आया, जो गर्भ के पहले था, और जो अभी छोड़ दें। तो शरीर मुरदे की भांति पड़ा रह जाएगा। इस शरीर के भीतर कालातीत प्रवेश किया है। अकाल पुरुष इस शरीर के भीतर भी मौजूद है। यह शरीर जैसे उसका सिर्फ वस्त्र मात्र है।
लेकिन आप जब इसे अपने भीतर पाओगे तभी आप श्रीमान नानक जी की वाणी समझ पाओगे। आपको अपने भीतर उसको खोजना है, जो न तो परिवर्तित होता है, न बदलता है।
अगर आपने कभी थोड़ा भी आंख बंद कर के बैठने का अभ्यास किया है, तो आपको एक बात खयाल में आयी होगी कि भीतर कोई उम्र नहीं है। आप 49 साल के हो कि 60 साल के, भीतर कुछ पता नहीं चलेगा। आप जब पांच साल के थे, तब भी आंख बंद करते तो भीतर आप अपने को वैसा ही पाते, जैसा आप 50 साल के हो कर पाओगे। जैसे भीतर के लिए समय बीता ही नहीं। आंख बंद कर के भीतर देखो,आप पाओगे वहां कुछ बदलता ही नहीं।
और यह जो भीतर अनबदला है, यह किसी योनि से पैदा नहीं हुआ है। आप मां-बाप से आए हो, उनसे पैदा नहीं हुए हो। वे आपके आने के मार्ग हैं, लेकिन वे आपके जन्मदाता नहीं हैं। आप उनसे गुजरे हो, क्योंकि आपके शरीर को बनाने की व्यवस्था उनके भीतर थी। लेकिन जो उस शरीर के भीतर प्रविष्ट किया है, वह पार से आया है। अपने भीतर जिस दिन आप अयोनिज को पाओगे, उसी दिन आप समझोगे कि ईश्वर की कोई योनि नहीं है। हो भी नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा का अर्थ है, समष्टि। यह पूरा का पूरा किससे पैदा होगा? पूरे के पार कुछ बचता ही नहीं, जो इसकी मां और पिता बन सके।
इसलिए अयोनि है, स्वयंभू है, अपने आप है। स्वयंभू का अर्थ है, अपने आप है। कोई सहारा नहीं है। किसी कारण से नहीं है। कोई आधार नहीं है। अपना ही आधार है। आप भी जिस दिन अपने भीतर इस बात की थोड़ी सी झलक पाओगे उसी दिन मुक्त होना प्रारम्भ होजाएगा ।
वह गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।'
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।।
'वह आदि में सत्य है, युगों के आरंभ में सत्य है, अभी सत्य है। नानक जी कहते हैं, वह सदा सत्य है। भविष्य में भी सत्य है।'
सत्य और असत्य की यही परिभाषा है। असत्य वह जो कभी नहीं था, अब है, और कभी फिर नहीं हो जाएगा। असत्य का अर्थ है दो छोरों पर जो नहीं, और बीच में है, सपना...सुबह जब आप उठे , तब खो गया, रात आप जब सोए तब नहीं था। इसलिए तो सुबह आप कहते हो सपना झूठा था, सच नहीं,क्योंकि सांझ नहीं था, सुबह फिर नहीं है। आपका यह शरीर एक दिन नहीं था। एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। यह शरीर झूठा है।
क्रोध आया,एक क्षण पहले नहीं था, और घड़ी भर बाद फिर चला जाएगा। यह क्रोध सपना है, यह सच नहीं है। जो सदा है, वही सत्य है। और अगर आप इस धारणा को गहरे ले जाओ तो आपके जीवन में रूपांतरण हो जाएगा। उससे बहुत ज्यादा ग्रसित मत होना जो बदलता है। आप उसी की तलाश करना जो अबदला है; सदा स्थायी और थिर है।
कौन है आपके भीतर जो कभी नहीं बदलता?
उसको ही खोजो। जरूर वह आपके भीतर है। क्योंकि सब बदलाहट उसी पर होती है। जैसे गाड़ी का चाक चलता है। तो एक कील पर चलता है, जो ठहरी रहती है। चाक चलता रहता है, कील ठहरी रहती है। आप कील को अलग कर लो, चाक फौरन गिर जाएगा। जो परिवर्तन हो रहा है वह भी शाश्वत के ऊपर हो रहा है। कील आत्मा की ठहरी हुई है, शरीर का चक्र घूम रहा है। जैसे ही कील अलग हुई, चाक गिर जाता है।
नानक कहते हैं--
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।।
वही सत्य है। वही एक; क्योंकि वह पहले भी था, अभी भी है, कल भी होगा, सदा रहेगा। और शेष सब सपना है। यह एक वचन अगर तुम्हारे मन में गहरा बैठ जाए...जब क्रोध आए, तब दोहराना अपने मन में--
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी भी सचु।।
घृणा आए, लोभ आए, दोहराना। और ध्यान रखना कि जो अभी नहीं था, अभी हुआ, सपना है। खो जाएगा। इसमें ज्यादा ग्रसित होने की जरूरत नहीं है। साक्षीभाव रखना। धीरे-धीरे आप पाओगे कि व्यर्थ अपने आप गिरने लगा, क्योंकि आपके उससे संबंध टूट गए और सार्थक का जन्म होने लगा। शाश्वत उठने लगा, संसार खोने लगा।
सोचे सोचि न होवई जे सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतरी जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि, त इक न चले नालि।
किव सचियारा होइए, किव कूड़ै तुटै पालि।
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
यह बड़ा कीमती, बहुमूल्य सूत्र है। नानक का सब सार।
'सोच-सोच कर भी हम उसे सोच नहीं सकते। यद्यपि हम लाखों बार सोच सकते हैं।'
सोच-सोच कर उसे कभी किसी ने पाया नहीं। सोच-सोच कर ही तो हमने उसे गंवाया है। जितना हम सोचते हैं उतने ही तो विचारों में हम खो जाते हैं। परमात्मा कोई विचार नहीं है। वह कोई तर्क की निष्पत्ति नहीं है। वह कोई मस्तिष्क का निष्कर्ष नहीं है। परमात्मा तो सत्य है। आपको सोचने का सवाल नहीं, देखना है। सोचने से क्या होगा? सोचने में तो और भटक जाओगे। आंख खोलनी है।
और अगर आंखें विचारों से भरी हैं, तो आपकी आंखें अंधी रहेंगी। आंख निर्विचार चाहिए, तभी दर्शन उपलब्ध होता है। जिसको झेन फकीर कहते हैं, नो माइंड। जिसको कबीर कहते हैं, उन्मनी दशा। जिसको बुद्ध कहते हैं, चित्त का खो जाना। जिसको पतंजलि ने कहा है, निर्विकल्प समाधि। सब विकल्प और विचार जहां खो गए, वही नानक जी कह रहे हैं।
'सोच-सोच कर भी हम उसे सोच नहीं सकते, यद्यपि हम लाखों बार सोचते रहें। चुप होने से भी उस मौन को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता, यद्यपि हम लगातार ध्यान में रह सकते हैं।'
क्यों? सोच-सोच कर उसे पाया नहीं जा सकता। चेष्टा कर-कर के मौन साधा नहीं जा सकता, क्यों?
क्योंकि जितनी आप चेष्टा करोगे, उतना ही आप पाओगे, मौन असंभव हो जाता है। कुछ चीजें हैं, जो चेष्टा से नहीं घटतीं। जैसे नींद नहीं आती किसी को, तो कितनी ही चेष्टा करे नींद नहीं आएगी। सच तो यह है जितनी चेष्टा करेगा उतनी नींद मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि नींद का अर्थ ही यह है कि आप सब चेष्टा छोड़ दो, तभी आएगी। आप कोशिश जारी रखोगे, कोशिश आपको जगाए रखेगी। जागने से कहीं नींद आयी है भला ? कोई उपाय नींद लाने का नहीं। क्योंकि नींद आती तब है, जब आप निरुपाय हो जाते हो। जब आप कोई उपाय नहीं करते हो। पड़े हो बिस्तर पर निरुपाय, तभी नींद आ जाती है।
आप अपने को जबर्दस्ती कैसे मौन करोगे? आप बैठ सकते हो। शरीर को साध सकते हो पत्थर की मूर्ति की तरह, भीतर मन उबलता रहेगा।
शांति का एक ही गुर है। और अगर यह सूत्र आपको ठीक से समझ में आ जाए, तो भारत सहित सम्पूर्ण पूर्व की सारी खोज समझ में आ सकती है। पूरब की सारी खोज यह है, लाओत्से से ले कर नानक तक, कि जो हो रहा है उसे स्वीकार कर लो।
इसका पुराना नाम भाग्य है। वह शब्द बिगड़ गया। सब शब्द बहुत दिन उपयोग करने से बिगड़ जाते हैं। क्योंकि गलत लोग उपयोग करते हैं, गलत अर्थ जुड़ जाते हैं। अब तो किसी की निंदा करनी हो तो कह दो कि भाग्यवादी है। लेकिन भाग्य...यही तो अर्थ है भाग्य का।
नानक कहते हैं, हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
जो लिखा है वह होगा। जो उसने लिख रखा है वही होगा। अपनी तरफ से कुछ भी करने का उपाय नहीं है। कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। फिर चिंता किसको? फिर बोझ किसको? जब आप बदलना ही नहीं चाहते कुछ, जब आप उससे राजी हो, उसकी मर्जी में राजी हो, जब आपकी अपनी कोई मर्जी नहीं, तब कैसी बेचैनी । तब कैसा विचार। तब सब हलका हो जाता है। पंख लग जाते हैं।आप उड़ सकते हो उस आकाश में, जिस आकाश का नाम है--इक ओंकार सतनाम। नानक जी की एक ही विधि है। और वह विधि है,ईश्वर की मर्जी। वह जैसा करवाए। वह जैसा रखे।
इसे एक कहानी से समझते हैं
ऐसा हुआ कि बल्ख का एक नवाब था, इब्राहीम। उसने बाजार में एक गुलाम खरीदा। गुलाम बड़ा स्वस्थ, तेजस्वी था। इब्राहीम उसे घर लाया। इब्राहीम उसके प्रेम में ही पड़ गया। आदमी बड़ा प्रभावशाली था। इब्राहीम ने पूछा कि तू कैसे रहना पसंद करेगा? तो उस गुलाम ने मुस्कुरा कर कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा कैसा, मेरे होने का क्या अर्थ? आप जैसा रखेंगे वैसा रहूंगा। इब्राहीम ने पूछा, तू क्या पहनना, खाना पसंद करता है? उसने कहा, मेरी क्या पसंद? मालिक जैसा पहनाए, पहनूंगा। मालिक जो खिलाए, खाऊंगा। इब्राहीम ने पूछा कि तेरा नाम क्या है? हम क्या नाम ले कर तुझे पुकारें? उसने कहा, मालिक की जो मर्जी। मेरा क्या नाम? दास का कोई नाम होता है? जो नाम आप दे दें।
कहते हैं, इब्राहीम के जीवन में क्रांति घट गई। उठ कर उसने पैर छुए इस गुलाम के और कहा कि तूने मुझे राज बता दिया जिसकी मैं तलाश में था। अब यही मेरा और मेरे मालिक का नाता। तू मेरा गुरु है। तब से इब्राहीम शांत हो गया। जो बहुत दिनों के ध्यान से न हुआ था, जो बहुत दिन नमाज पढ़ने से न हुआ था, वह इस गुलाम के सूत्र से मिल गया।
आइये एक प्रयोग कीजिये
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि।
जैसा ईश्वर रखे, वैसे रहो। अपनी तरफ से आप बहुत कोशिश करके भी देख लिया, क्या हुआ? आप वैसे के वैसे हो। जैसा उसने भेजा था उससे विकृत भला हो गए हो, उससे सुकृत नहीं हुए हो। जैसे आए थे बचपन में भोले-भाले, उतना भी नहीं बचा हाथ में। स्लेट गंदी हो गई है, आपने सब लिख डाला। पाया क्या है? सिवाय दुख, तनाव, संताप के क्या आपके हाथ लगा है? थोड़े दिन नानक जी की सुन कर देखो भला । छोड़ दो उस पर,
इसलिए तो नानक जी कहते हैं, न जप, न तप, न ध्यान, न धारणा। एक ही साधना है,उसकी मर्जी। जैसे ही आपको खयाल आएगा उसकी मर्जी का, आप पाओगे भीतर सब हलका हो जाता है। एक गहन शांति, एक वर्षा होने लगती है भीतर, जहां कोई तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं।
आगे संक्षिप्त रूप से निष्कर्ष इस लेख का समझते हैं
'तेरा', की -धुन बन गई। फिर वे तौलते गए, लेकिन संख्या तेरा से आगे न बढ़ी। भरते, तराजू में डालते और कहते 'तेरा'। भरते, तराजू में डालते और कहते तेरा। क्योंकि आखिरी पड़ावआ गया। तेरा से आगे कोई संख्या है? मंजिल आ गई। 'तेरा' पर सब समाप्त हो गया। लोगों को लगा कि नानक जी की सामान्य दुनियादार नहीं। लोगों ने रोकना भी चाहा, लेकिन वे तो किसी और लोक में हैं। वे तो कहे जाते हैं 'तेरा'। डाले जाते हैं, तराजू से तौले जाते हैं, और तेरा से आगे नहीं बढ़ते। तेरा से आगे बढ़ने की जगह ही कहाँ है। दो ही तो पड़ाव हैं, या तो 'मैं' या 'तू'। मैं से शुरुआत है, तू पर समाप्ति है।
नानक संसार के विरोध में नहीं हैं। नानक संसार के प्रेम में हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि संसार और उसका बनाने वाला दो नहीं। आप इसे भी प्रेम करो,आप इसी में उसको प्रेम करो।आप इसी में उसको खोजो।
नानक जी जब युवा हुए, तब घर के लोगों ने कहा, शादी कर लो। उन्होंने 'नहीं' न कहा। सोचते तो रहे होंगे घर के लोग कि यह नहीं कहेगा। बचपन से ही इसके ढंग अलग थे। नानक जी के पिता तो परेशान ही रहे। उनको कभी समझ में न आया कि क्या मामला है। भजन में, कीर्तन में, साधु-संगत में...।
भेजा था बेटे को सामान खरीदने दूसरे गांव। बीस रुपए दिए थे। सामान तो खरीदा, लेकिन रास्ते में साधु मिल गए, वे भूखे थे। पिता ने चलते वक्त कहा था, सस्ती चीज खरीद लाना और इस गांव में आकर महंगी बेच देना। यही धंधे का गुर है। दूसरे गांव में सस्ते में खरीदना, यहां आकर महंगे में बेच देना। यहां जो चीज सस्ती हो खरीदना, दूसरे गांव में महंगे में बेचना। वही लाभ का रास्ता है। तो कोई ऐसी चीज खरीदकर लाना, जिसमें लाभ हो। नानक लौटते थे खरीदकर, मिल गई साधुओं की एक जमात। वे साधु पाँच दिन से भूखे थे। नानक ने पूछा,भूखे बैठो हो। उठो, कुछ करो। जाते क्यों नहीं गांव में? उन्होंने कहा, यही हमारा व्रत है। जब उसकी मर्जी होगी वह देगा। तो हम आनंदित हैं। भूख से कोई अंतर नहीं पड़ता।
तो नानक ने सोचा कि इससे ज्यादा लाभ की बात क्या होगी कि इन परम साधुओं को यह भोजन बाँट दिया जाए जो मैं खरीद लाया हूँ बाहर गांव से? पिता ने यही तो कहा था कि कुछ काम लाभ का करो।
उन्होंने वह सब सामान साधुओं में बाँट दिया। साथी था साथ में, उसका नाम बाला था। उसने कहा क्या करते हो, दिमाग खराब हुआ है। नानक जी ने कहा, यही तो कहा था, पिता ने कुछ लाभ का काम करना। इससे ज्यादा लाभ क्या होगा? बांट कर वे बड़े प्रसन्न घर लौटे।
पिता ने कहा भी कि ऐसे तो व्यापार नष्ट हो जाएगा। और नानक जी ने कहा, 'आप नहीं सोचते कि इससे ज्यादा लाभ की और क्या बात होगी? लाभ कमा कर लौटा हूं।'
लेकिन यह लाभ किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। नानक के पिता कालू मेहता को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता था। उनको तो लगता था, लड़का बिगड़ गया। साधु संगत में बिगड़ा। होश में नहीं है। सोचा कि शायद स्त्री से बांध देने से राहत मिल जाएगी।
अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं। सोचने का कारण है क्योंकि संन्यासी स्त्री को छोड़कर भागते हैं तो अगर किसी को गृहस्थ बनाना हो, तो स्त्री से बाँध दो। पर नानक जी पर यह तरकीब काम न आई क्योंकि यह आदमी किसी चीज के विरोध में न था। पिता ने कहा, 'शादी कर लो।'
नानक ने कहा, 'अच्छा'। शादी हो गई, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क नहीं पड़ा। बच्चे हो गए, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क न पड़ा। इस आदमी को बिगाड़ने का उपाय ही न था, क्योंकि संसार और परमात्मा में उन्हें कोई भेद न था।
आप बिगाड़ोगे कैसे? जो आदमी धन छोड़कर संन्यासी हो गया, उसे बिगाड़ सकते हो- धन दे दो। जो आदमी स्त्री छोड़कर संन्यासी हो गया, एक सुंदर स्त्री उसके पास पहुंचा दो, बिगाड़ सकते हो। लेकिन जो कुछ छोड़कर ही नहीं गया, उसको आप कैसे बिगाड़ोगे। उसके पतन का कोई रास्ता नहीं है। इसीलिए नानक जी का पतन नहीं किया जा सकता।
यही नानक जी की शान है ।
वाह गुरु जी का खालसा वाह गुरु जी की फतेह।
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2 टिप्पणियाँ
बहुत ज्ञानवर्धक लेख !! और गुरुनानक देव का जीवन और सन्देश पढ़कर स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव के प्रति कथित "वाह गुरु जी का खालसा वाह गुरु जी की फतेह।" का मर्म समझ में आ गया। आपके श्रीचरणों में सादर प्रणाम !
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक लेख !! और गुरुनानक देव का जीवन और सन्देश पढ़कर स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव के प्रति कथित "वाह गुरु जी का खालसा वाह गुरु जी की फतेह।" का मर्म समझ में आ गया। आपके श्रीचरणों में सादर प्रणाम !
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