कैसे हो आंतरिक चेतना का विकास How to develop inner consciousness

 अन्दर के पट खोल,Open the inside door

              आज के लेख को, में एक प्रश्न से प्रारम्भ करना चाहती हूं-जो यह है कि-किसी जीवन मे व्यवहार का क्या मूल्य है,??आचरण का क्या मूल्य है?? जीवन इतना मूल्यवान व्यवहार व आचरण से न होकर कुछ सूक्ष्म तत्वों से निर्मित होता है वे तत्व क्या हैं?? यह जानने का प्रयास अधिकतर लोग करना ही भूल जाते हैं । कैसे हो आंतरिक चेतना का विकास ??  How to develop inner consciousness ?? जीवन मे गहरे से गहरा मूल्य है आत्मा का, मूल्य है चेतना का, मूल्य है विचार का, मूल्य है विवेक का, लेकिन यदि आचरण की बात करें तो आचरण तो भीतर जैसी चेतना होती है उसकी सुगंध मात्र है,उसका केवल संकेत है,सूचना है,उससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। लेकिन हम भूलते जा रहे हैं,हम इस सुगन्ध के लिए कम काम कर रहे हैं क्यों??अन्दर के पट खोल,Open the inside door

आइए विषय को गहराई से समझें :-

                   एक आदमी को बुखार चढ़ा हुआ है। उसका शरीर उत्तप्त हो गया है, ताप से भर गया है, गरम हो गया है। इस उत्ताप का क्या मूल्य है? यह कोई बीमारी थोड़ी है। बीमारी तो भीतर है,जिसकी वजह से शरीर ने गरम होकर खबर दी है। बेचैनी की खबर दी है। गर्मी बीमारी नहीं है । गर्मी तो केवल लक्षण है बीमारी का। और अगर हम सोचने लगें कि गर्मी को कैसे ठीक किया जाए और बुखार के मरीज को सिर्फ ठंडे पानी में नहलाएं और ठंडक में रखें--तो बीमारी के ठीक होने की तो कोई संभावना नहीं रह जायेगी, बीमार के मर जाने की संभावना जरूर पैदा हो सकती है।

बुखार तो केवल सूचना information है । बुखार तो केवल लक्षण है, बीमारी कहीं भीतर है। इस लक्षण को देख कर उस भीतर की बीमारी को ठीक करेंगे तो लक्षण विलीन हो जाएगा ।

कैसे हो आंतरिक चेतना का विकास How to develop inner consciousness

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बुरा आचरण करने वाला जल्दी बदलता क्यों नहीं

                  इसी प्रकार आचरण, व्यवहार जो हमें बाहर दिखाई पड़ता है,वह मनुष्य की भीतर की चेतना की सूचना है। भीतर चेतना रुग्ण होती है तो व्यवहार रुग्ण हो जाता है। कोई आदमी असत्य बोलता है,बेईमानी करता है, चोरी करता है,डाका डालता है,गाली बकता है,आप क्या सोचते हैं कि यह व्यवहार है। चोरी जिस आत्मा से निकलती है वह रुग्ण है। असत्य जिस चेतना से निकलता है वह बीमार है। बेईमानी जहां से पैदा होती है वहां भीतर जड़ में कोई खराबी है और अगर उस जड़ को नहीं बदला जाता--तो हम बीमारी को काटेंगे एक तरफ से, बीमारी दूसरी तरफ से पैदा होगी । 

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मूल आधार को क्यों नहीं बदला जाता

              और यदि बुराई को किसी दूसरी तरफ से काटेंगे, तीसरी तरफ से पैदा होगी।एक जगह से चोरी को रोकेंगे । चोरी दूसरी तरफ से घूम कर खड़ी हो जाएगी। क्योंकि अब आप  जड़ को नष्ट नहीं कर रहे केवल शाखाओं को काट रहे हैं । शाखाएं काटने से पौधे नष्ट नहीं होते हैं, लेकिन जड़ें काट देने से जरूर नष्ट हो जाते हैं। और शाखाएं काटने से तो और नुकसान होता है, शाखाओं का काटना तो और नई शाखाओं के जन्म की व्यवस्था हो जाती है। एक शाखा काटी तो दो शाखाएं पैदा होती हैं, दो काटी तो चार पैदा होती हैं।

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 कहीँ हम उल्टी  शिक्षा तो नहीं दे रहे हैं।

                लेकिन तथाकथित अपने आप को धर्म का आचरणकर्ता कहने वाले लोगो ने, मनुष्यों को,आज तक आचरण की ही शिक्षा देते रहे हैं। वे यह नहीं कहते कि उस चेतना को प्राप्त करो जिससे सत्य पैदा होता है, वे यह कहते हैं सत्य बोलो। यह तो केवल विपरीत ही बात समझ मे आती है और यह तो गलत बात है। वे यह नहीं बताते हैं कि किस आत्मा से सत्य के फूल पैदा होते हैं उस आत्मा को उपलब्ध करो। वे यह बताते हैं कि सत्य बोलो--झूठ मत बोलो! चोरी मत करो! बेईमानी मत करो! हिंसा मत करो! ये सारी की सारी शिक्षाएं लक्षणों को बदलने की शिक्षाएं हैं, अंतरात्मा को बदलने की नहीं। और लक्षण बदलने से कोई आत्मा कभी नहीं बदलती। बदलने का कोई मार्ग भी नहीं है। ऊपर से बदलने से भीतर जो है वह नहीं बदलता है लेकिन भीतर जो है अगर बदल जाए तो ऊपर सब अपने आप बदल जाता है।

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क्या आप जानते हैं सारी दुनिया मे पाखण्ड का जन्म कैसे हुआ???

            यह आचरण की शिक्षा ने सारी दुनिया में पाखंड को पैदा किया है। आदमी भीतर वही बना रहता है जो है। और ऊपर से आचरण को थोप लेता है। और दिखाई कुछ और पड़ने लगता है। जिन देशों ने,नैतिक लोगों ने, नीतिवादियों ने, आचरणवादियों ने, व्यवहारवादियों ने मनुष्य की आत्मा को अतिक्रांत कर रखा है, उन देशों में उतना ही ज्यादा पाखंड पैदा हो गया है।

परिणाम क्या हुआ

             वर्तमान में भारत मे भी यही हो रहा है। भारत मे पांच हजार साल की शिक्षा है,केवल आचरण को ठीक करने की,जितना इस शिक्षा ने छलाया है, उतना ही भारत मे  ज्यादा गलत आचरण आज तक देखे जा रहे हैं, क्या हुआ इस शिक्षा का? इतने दिनों की चेष्टा का क्या परिणाम हुआ? यह परिणाम हुआ जो आज भारतीय मानुष जिस तरह के हैं। ओर निश्चित ही हम सभी की चेष्टाओं में कहीं कोई मूलआधार में भूल हो गई है ।और वह भूल यह है कि हमने जड़ को बदलने की कोशिश नहीं की, हमने शाखाओं को बदलने की कोशिश की है। शाखाओं के बदलने से शाखाएं और बढ़ती चली गई हैं। शाखाओं को बदलने से,आचरण बदल जाये, यह तो हो भी नहीं सकता, यह बिलकुल असंभव है,अवैज्ञानिक है।

अंत मे में यही कहूँगी,व्यवहार व आचरण में श्रेष्ठता आएगी तब,जब हम चेतना को रोगी न रखें,अन्यथा और नीचे पतन होगा हमारा।  

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श्री मति माधुरी बाजपेयी

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