पूर्व के पाठ्यक्रम में गुरुकुल परंपरा में अध्ययन के लिए विद्दार्थियों को गुरुकुल के शिक्षक,जब प्रकृति सबसे अच्छी औषधि है(Nature is best Medicine)इस विषय को समझाने और अनुभव करवाने हेतु किसी विशेष स्थान में ले जाते थे, तब शिक्षक उन विद्दार्थियों को समझाने ,तथा प्रयोगिक अनुभव करवाने ले लिए ,नित नए विषय को केंद्रित करके उस विषय के बारे में प्रत्यक्ष प्रयोग कर के समझाते व अनुभवः कराते थे।
बच्चों को प्रकृति के महत्व का ज्ञान (Knowledge of the importance of nature to children)
उदाहरण हेतु :-
वहीं शिक्षक वर्षा के जल के बारे में जब भी विद्यार्थियों को बताते थे,तो वे विद्यार्थियों से कहते थे कि चलो जहां वर्षा हो वहां चलते हैं, बर्षा वाले स्थान पर ले जाकर शिक्षक खुद बर्षा के पानी मे भींजते थे,और विद्यार्थियों को भी भींजवाते थे,वे कहते थे कि - " विद्यार्थियों देखो यह बर्षा है , जिसने तुमको भींजाया है, अब तुम सभी बर्षा के जल का अनुभव करो ।"
अग्नि की जानकारी देने के लिए गुरुकुल के शिक्षक एक खास नियमों के अनुसार विद्यार्थियों को जहां अग्नि जल रही हो उसके कुछ दूर बैठाकर वे अग्नि की तरफ संकेत कर बताते थे, कि "अग्नि लाल रंग के जैसी होती है अग्नि में ताप होता है,ताप के पास जाने से शरीर में जलन की स्थिति आती है," इस तरह की तकनीकी शिक्षा से बच्चे बहुत अच्छे से प्रकृति की जानकारी प्राप्त कर लेते थे,जिससे उनका बचपन,उनकी जवानी और उनका बुढ़ापा तीनों अत्यंत ही सुखमय होते थे,शांतिपूर्ण होते थे और लंबी आयु तक वह स्वस्थ रहते थे। जब भी वे बीमार पड़ते तब वे प्रकृति के सानिध्य में जाकर स्वयं का उपचार कर लेते थे।
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प्रकृति से दूरी,बच्चों के शरीर हुए रोगी
वही आज के परिपेक्ष में देखा जाए, तो आज बच्चों को ऐसा परिवेश कम ही मिलता है,जहां वे प्रकृति का सीधा सानिध्य प्राप्त कर पाएं, यदि बच्चों को अग्नि,वायु,पेड़ ,पौधे इत्यादि के बारे में और भी प्रकृति के गहनतम हिस्सों के बारे में हम जब बताते हैं तो हम पुस्तकों के सहारे से, शब्दों के सहारे से,पुस्तकों में चित्रों के सहारे से बताते हैं,जिससे बच्चों का प्रकृति से उतना गहरा भावनात्मक रिश्ता नहीं हो पाता जो स्पर्श से हो सकता था, जो पास बैठने से हो सकता था,जो अनुभव करने से हो सकता था, अभी वर्तमान की स्थिति के अनुसार बच्चों को सीमेंट के मकानों, रोड़ों ,जंगलों में कटते पेड़ों,घटते पंछियों और मशीनी जिंदगी में जीना पड़ रहा है । जिससे इस युग में बच्चों की एक नई बीमारी ने जन्म ले लिया है जिसका नाम है ' नेचर डेफिसिटी डिसऑर्डर ' इस से तात्पर्य है की प्रकृति वंचित होने वाला विकार ।
प्रकृति से दूर रहने पर क्या होता है
गहन शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया की प्रकृति का सानिध्य ना मिलने से बढ़ते बच्चों में निजता की में कमी,और व्यक्तित्व में बहुत सी कमी रह जाती है इस संबंध में वे कहते हैं कि प्रकृति के सानिध्य से वंचित बच्चों में चिंता,हिंसा की अधिकता ,कल्पनाशीलता की कमी, मोटापा और भी विभिन्न प्रकार के स्पर्श के रोग भावनात्मक रूप से विकसित होने वाले रोग आ जाते है।
प्रकृति बच्चे को खिल खिलाती है-
प्रकृति बच्चे को उदार और प्रसन्न चित्त बनाती है, प्रकृति के साथ बच्चे सहज ही सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं,और इस रिश्ते मैं ना कोई जोड़ गांठ होती है,ना तनाव,और न ही बनावटी पन। इससे यह तय है कि रिश्ता सहज और सरल और उल्लास हित करने वाला होता है।
क्यों होता है 'नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर'???
यह तो आज के मां-बाप हैं, जो बच्चों को मिट्टी में खेलने देना पसंद नहीं करते हैं,बच्चों को पेड़,पौधों को सतत स्पर्श न लेने देना,पंक्षियों के कलरव के साथ एक न होने देना,बच्चे के बारिश में भीग जाने या उसके कपड़े गंदे होने से डरते हैं। बच्चे तो मिट्टी के खिलौने बनाना और पानी में कागज की नाव चलाना हमेशा पसंद करते हैं। एक और चीज है, जो बच्चों में 'नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर' को बढ़ा रही है,वह है बच्चों को प्राकृतिक परिवेश ना मिलने देना।
क्या करें 'नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर' से बचने के लिए???
बच्चों को नए युग की,नई बीमारी से बचाने के लिए मां-बाप शिक्षक और समाज को प्रयास करना चाहिए। पेड़ - पौधे लगाने चाहिए,भिन्न-भिन्न प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप उनको शिक्षा उन्हीं वातावरण में रहकर देना चाहिए ।
बच्चों को सप्ताह में एक बार या हो सके तो नियमित रूप से हरे पौधों के पास ले जाकर सैर करवाकर उन सारे पौधों,पक्षियों,नदी,आसमान का ध्यान में रखते हुए शिक्षक जन , माता पिता, व्रद्ध जन इत्यादि बच्चों को जानकारी दें, उन वृक्षों से सम्बंधित जानकारी भी दें जिनका औषधीय उपयोग होता है।
खुली रातों में घर की छत पर ले जाकर चांद- सितारे दिखाना चाहिए। डूबते - उगते सूरज के दर्शन करवाना चाहिए । और बच्चों को खुले वातावरण में बिंदास खेलने देना चाहिए, प्रकृति से बच्चा सीखता भी बहुत है, और प्रकृति के साथ बच्चा खुश भी बहुत रहता है।
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