देव दुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता

    
""मानव को दानव नही वरन खुशियों का खाजाना बनाना है ।।""
         हमारी देह रूपी शरीर जो हमे प्राप्त हुआ है ,उसको परम् आनन्द से सुरक्षित रख जीवन जीने की कला में लाएं ।
    मनुष्य ब्रह्मांड का श्रेष्ठ प्राणी है महर्षि व्यास कहते हैं 'मनुष्य -- योनि से बढ़कर कोई उत्तम योनि नहीं है ।'
हमारे शास्त्रों में मानव जीवन को अद्वितीय, देव -- दुर्लभ कहा गया है । 
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं - 

बड़े भाग मानुष तन पावा। 
        सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा।
साधना धाम मोक्ष का द्वारा।
          पाई न जेहि परलोक सँवारा।। 
                                       (मानस ७-४२-४)
     बड़े भाग्य से यह मनुष्य - शरीर मिला है । सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है ।यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है ।
 इस अमूल्य नर तन को पाकर यदि हमने अपना परलोग नहीं संवारा तो व्यर्थ ही है यह जीवन। 
अतः वेदों से लेकर आज तक हमारे ऋषियों , संतो और आचार्य ने भी यही उपदेश दिया है कि इस शरीर को पाकर हम अपने उस महान लक्ष्य को प्राप्त करें, जिसके लिए हमें यह दिव्य नर तन  मिला है ।
धूूूम्र पान और
मद्द पान और
क्रोध आदि अवगुणो का रूपांतरण ही मानव जीवन को हरि भजन में लगा सकता है ।

    कहने का भाव यह है कि मानव - जन्म अत्यंत दुर्लभ है इसे पाकर जो मनुष्य परमात्मा - प्राप्ति के साधन में तत्परता के साथ नहीं लग जाता, वह बहुत बड़ी भूल करता है । 
अतएव  जबतक यह  दुर्लभ  मानव - शरीर जीवित है , तब तक शीघ्र - से - शीघ्र परमात्मा को जान लिया जाए तो मानव - जन्म की परम सार्थकता है ।
 हमारे पूर्वज तपः पुत ऋषियों ने चिंतन - मनन द्वारा इस बन्धन से पार उतारने वाली बड़ी सुंदर और सुदृण नोका हैं ।  
          इस देव - दुर्लभ मानव - शरीर को प्राप्त कर यदि हमने अपने कर्म - समूह को ईश्वर - पूजा और भगवत भक्ति के लिए समर्पित ना कर तथा काम उपभोग को ही जीवन का परम धेय मानकर विषयों की उपासना में लगा दिया तो हमारा मनुष्य रूप में जन्म लेना व्यर्थ है ।
    यह दिव्य नर - तन जीव को भगवान की विशेष अनुकंपा से, जन्म मृत्यु रूप संसार - सागर से उतरने के लिए मिलता है । 
               यदि इस सुदृण मानव - शरीर रूपी नौका को हमने विषय - सुख के घाट पर ही बांध कर रख दिया, तब तो मृत्यु - पाश से मुक्ति पाना केवल कल्पना ही होगी ?  
               इस देव - दुर्लभ नर - तन को प्राप्त कर यदि हम भवसागर का संतरण कर मृत्यु - पास से सर्वदा के लिए छुटकारा पा जाएं , तब तो हमारे जीवन की  
सार्थकता है ।
     अतएव,आइए हम भी अपने जीवन को मूल्यवान बनाएं , जन्म - मरण का जो क्लेश है, वह हरि - भजन के बिना मिटने का नहीं ।
 कालजयी काग भूशुंडी जी ने  गरुड़ जी से अपना अनुभव बताते हुए कहा भी है - 
      "निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।  
बिनु हरि भजन ना जाही कलेसा।।''
    इसलिए हे मानव ! शीघ्रता कर , नहीं तो पीछे पछताना पड़ेगा । जब बुढ़ापा आएगा तब तू क्या भजन करेगा !  अतएव अभी से हरी भजन कर , जिससे तेरा बेड़ा पार हो जाए।।

जय हरि  - जय हरि 

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