दत्तात्रेय जयंती | दत्तात्रेय का जन्म | dattatreya jayanti read unknown facts about god dattatreya

         दत्तात्रेय जी का जन्म मार्गशीष माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को हुआ था।  दत्तात्रेय जयंती के इस पावन अवसर पर जीवन श्रेष्ठतम अवसर को समझें,उससे पहले यह समझें कि तपस्वी का जीवन श्रेष्ठ को व्यवस्थित बनाता है,प्रकृति और हमारे मध्य सन्तुलन को स्थापित करता है,जीवन मे तप से श्रेष्ठता आती है,बिना तप का व्यक्ति,केवल अस्थिरा मति का हो जाता है, दत्तात्रेय जैसा व्यक्तिव हमें हमारे मानस को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहता है,दत्तात्रेय जयंती पर एक निर्णय जरूर लिया जाना चाहिए,यदि सन्तान तपस्वी,यशस्वी,और श्रद्धा से पूरित हम चाहते हैं,तो उतनी गहराई से तप करना हमेँ पड़ेगा,आगे के विषय मे यह बात स्पष्ट हो जाएगी.....

दत्तात्रेय जयंती | दत्तात्रेय का जन्म | dattatreya jayanti read unknown facts about god dattatreya

दतत्तात्रेय जी के पिता 

      महर्षि अत्रि जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। महर्षि अत्रि दतत्तात्रेय जी के पिता हैं।

दतत्तात्रेय जी की माता

   अनुसुइया जी के पिता कर्दम ऋषि हैं,और अनुसुइया जी के भाई सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव जी हैं। देवी अनुसुइया श्री दतत्तात्रेय जी की माता हैं।

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श्री दत्तात्रेय जी पिता-महर्षि अत्रि और माँ अनुसुइया का तप

       जीवन मे तपस्या आवश्यक हिस्सा है,चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, चाहे पुरुष करे या स्त्री,चाहे दोनो मिलकर करें,चाहे घर में हो या वन में,

मन मे विचार स्थिर हो जाएं,

    प्रकृति के साथ एक हों जाएं,

          जीवन मे निखार हो,इस भाव दशा को लेकर,ब्रम्हा जी के सुपुत्र अत्रि,और अत्रि जी की पत्नी अनसुइया ने निर्णय किया कि तप करेंगे,और जीवन के कुछ हिस्से तप को समर्पित करेंगे।

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भगवान दत्तात्रेय के अवतार का स्थान

        स्कंद पुराण के माहेश्वर खण्ड के अध्याय 22, की श्लोक क्रमांक 17-18 कहता है कि दत्तात्रेय जी की माता और पिता ने खास स्थान का चयन किया वह है,भारत का एक प्रदेश जिसे हम गुजरात के नाम से जानते हैं यह वह स्थान है, जिसे हम स्तम्भ तीर्थ के नाम से जानते हैं अर्थात खंभात। जिसके समीप  महीसागर-संगम स्थान पर अत्रि जी और अनुसुइया जी मिलकर आश्रम बनवा कर तल्लीन भाव से दीर्घ काल तक तपस्या की। 
     तप के पहले अत्रि जी ने अपने आश्रम  पर अत्रीश्वर नामक शिवलिंग की विधि पूर्वक स्थापना की थी। स्कन्द पुराण कहता है कि भृगुकच्छ (भडोच)-के समीप के रेवा-सागर संगम के सन्निकट में सुवर्ण शिला-स्थान में दत्तात्रेय जी का अवतरण हुआ था। 
यह वह दिन था जब मार्गशीष माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि थी.
गुजरात के नर्मदा तटस्थ अनसूया-तीर्थ को भी दत्तात्रेय अवतार स्थान माना जाता है।

दत्तात्रेय जी के माता-पिता की तपस्या का फल


      धीरे-धीरे यह तप चरम में पहुंचा,पहुंचते-पहुंचते यह तप में किया गया मन्त्र अत्रि जी को स्पष्ठ दिखाई दिया,क्योंकि वे मन्त्र के माध्यम से तप में रत थे। और अनुसुइया जी भी भक्ति के माध्यम से तप में रत थीं , अनुसुइया जी भक्ति की ऊर्जा से सराबोर हो गईं और भक्ति के चरम पर पहुंच,उन्होंने गहन कल्पना शक्ति की सिद्धि और एकाग्रता के साथ प्रकृति और स्वयं में संतुलन को सम्भाल लेने का गुण प्राप्त किया ।

दोनो के कुछ माह के तप के अभ्यास ने अत्रि को महर्षि अत्रि,और अनसुइया को देवी अनुसुईया के नाम से पुकारा जाने लगा।


          दत्तात्रेय जी के जन्म कुछ साल के बाद भी बालक दत्तात्रेय जी की प्रकृति शांत थी,वे बचपन मे खेल खेल में भी शांत प्रकृति से दूर नहीं होते थे। 
धीरे धीरे यह बालक बड़ा हुआ,उम्र बढ़ते जाने से ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा भी बढ़ते गई और एक दिन ऐंसा भी हुआ कि युवा दत्तात्रेय ने जीवन को बदलने का निर्णय ले लिया,दत्तात्रेय जी ने सिद्ध श्रीक्षेत्र नृसिंहवाड़ी की तपोभूमि पर जाके 3 से 4 माह तक तपस्या करने जाने का निर्णय लिया। 
      लेकिन दत्तात्रेय जी के माता-पिता दुःखी हुए,की बेटा तप करने के लिए तपो भूमि जाएगा फिर कब आएगा इत्यादि। फिर दत्तात्रेय जी ने जाने से पूर्व अपनी माता को व पिता को आश्वस्त किया कि वे जब भी अपने दत्तात्रेय को स्मरण करेंगे,उनके सामने दत्तात्रेय जी को पाएंगे। 

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यह सुन दत्तात्रेय जी के माता,और पिता ने खुशी-खुशी अपने सुपुत्र दत्तात्रेय जी को तपो भूमि जाने की आज्ञा प्रदान करी,और दत्तात्रेय ने श्रीक्षेत्र नृसिंहवाड़ी पर किसी पत्थर की एक शिला पर बैठ तप करना प्रारंभ किया,भगवान विष्णु और,भगवान ब्रम्हा जी के आशीर्वाद से उन्हें साधना में दिनों दिन सफलता मिलते जाती और एक दिन वे वैदिक मंत्रों के दृष्टा बन गए। पहली बार वे भगवत्ता को प्राप्त कर भगवान दत्तात्रेय कहलाये।

      दत्तात्रेय जी बाल्यकाल से ही जिज्ञासु प्रव्रत्ति के थे, उनके सीखने का अलग ढंग था,और दत्तात्रेय जी ने गुरु नही बनाया,वरन संसार में उपस्थित सम्पूर्ण प्रकृति के जीवित कुछ 24 हिस्सों को गुरु बनाया,

जाने क्या होती है एक गुरु की किसी के जीवन मे आवश्यकता?? कैसे स्नेह का भाव गुरू या कहें शिक्षक के साथ जुड़ा होता है??

आइये जानते हैं कि दत्तात्रेय जी के वे 24 गुरु कौन थे ???

 
      महाराज यदु और भगवान दत्तात्रेय जी के सम्वाद में भगवान दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन, माता,पिता से तो तप की गहनता में उतरना सीखा है,लेकिन इनके आलावा भी मैने अपने 24 गुरुओं से भी सीखा है,वे 24 गुरु इस प्रकार हैं :-पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, क्वारी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट।

      इस प्रकार दत्तात्रेय जी की ज्ञान की अभीप्सा इतनी गहरी थी कि प्रकृति में ही उन्हें 24 गुरु मिल गए,जिनसे उन्होंने सीख,धन्य हैं वे माता-पिता जिनकी सन्तान ज्ञान की अभीप्सा में समर्पित है।

जय हो श्री दत्तात्रेय जी की।

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