अशांति से शांति की तरफ यात्रा(Journey from Disturbance to peace)

 अशांति से शांति की तरफ यात्रा | what is disturbance | what is peace | How Journey from Disturbance to peace | why Disturbance | क्यों हों शांत

कभी आप विचार जरूर करिये की मै अशांत क्यों हूँ ??

      अशांत हम होते हैं, हमारे जीवन के प्रति जीने के जो तरीके हैं, उससे। और शांति हम खोजते हैं कि किसी मंत्र से मिल जाए,शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि ईश्वर की कृपा से मिल जाए। हम अशांत होने की पूरी व्यवस्था करते चले जाते हैं और शांति खोजते रहते हैं। तब यह शांति की खोज सिर्फ एक और नई अशांति का कारण बन जाती है,और कुछ भी परिवर्तन नहीं होता।

अशांति से शांति की तरफ यात्रा(Journey from Disturbance to peace)

इसलिए दो प्रकार की अशांति होती है :-

1)साधारण व्यक्ति की अशांति
2) थोथे धार्मिक व्यक्ति की अशांति

साधारण व्यक्ति साधारण रूप से अशांत होता है, थोथे धार्मिक व्यक्ति असाधारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वे सभी कहते है, कि धन भी चाहिए,यश भी चाहिए,पद भी चाहिए ,सब कुछ चाहिए। व्यक्ति की चाहत की सूचियों में बस एक और चाह बढ़ गयी है वह है,शांति भी चाहिए। और इसी सूची में वही व्यक्ति फिर आगे भी कहेगा अब परमात्मा भी चाहिए।

अशांति बढ़ती कैसे है :-

      जैसे ही उपरोक्त विचार मंथन को वह करता है,वैसे ही उसकी अशांति और बढ़ जाएगी। इसलिए आपने देखा होगा यदि किसी घर में एक व्यक्ति तथाकथित थोथा धार्मिक हो जाए, तो खुद तो अशांत होता ही है, बाकी लोगों को भी वह शांत रहने देने में परेशानियाँ डालने लगता है। सब कुछ तहस-नहस कर देता है। शांति चाहिए, यह भी उसके लिए अशांति ही बन जाती है।

शांति क्या है???

पहली बात शांति को चाहा जा ही नहीं सकता।
दूसरी बाद आशांति को समझा जा सकता है।

     अब बताइये शांति को आप कैसे चाहोगे। कुछ लोग यह विचार करते हैं कि शांति की भी इच्छा की जानी चाहिए जो कि सर्वदा गलत है। आप इच्छा तो कर ही नहीं सकते। क्योंकि यह वचन याद रखियेगा, सब इच्छाएं अशांति पैदा करती हैं, इसलिए  मेरी दोनो बात को समझ ही लेना चाहिए ,पुनः दोहराव करती हूँ :- पहली बात शांति को चाहा जा ही नहीं सकता।दूसरी बात आशांति को समझा जा सकता है।
       अब समझें कि आप जब कभी जीवन मे, किसी क्षण अशांत न रहें जब ऐंसा हो जाये तब अंत मे जो शेष रह जाता है, उसका नाम शांति है। इसलिए निश्चित ही शांति सिर्फ एकमात्र अभाव है।

मेरा आपसे एक और प्रश्न है :-
कभी विचार करें,स्वास्थ्य क्या है????

             इस जिज्ञासा को शांत करने हेतु अगर आप किसी चिकित्सक से पूछें जाकर— तो वह कहेगा—बीमारियों का अभाव। यदि अगर आप किसी डाक्टर से कहें कि मुझे स्वास्थ्य का इंजेक्शन लगा दें । तो वह उलझन में पड़ जाएगा और भिन्न-भिन्न विचार में पड़ जायेगा कि यह व्यक्ति क्या कह रहा है??, ओर वह अंत मे कहेगा कि क्षमा करें मुझे। में तो केवल बीमारी कुछ दिन में समाप्त करने का इंजेक्शन लगा सकता हूँ,लेकिन मेरे पास,स्वास्थ्य का कोई इंजेक्शन नहीं है। यहां तक कि यदि आप चिकित्सक से कहें कि हमें स्वास्थ्य दे दीजिए। तो वह फिर घवड़ायेगा,यदि ईमानदार होगा तो कहेगा, हम बीमारी छीन सकते हैं,लेकिन स्वास्थ्य कैसे दे देंगे? हां, बीमारी नहीं बचेगी तो जो बचा रहेगा वह स्वास्थ्य है।

जहां अशान्ति का कोई कारण न रह जाये, वहीं शांति होती है :-

      आपकी जानकारी में हो कि बस इसी कारण से किसी भी मेडिकल साइंस की किसी किताब में—चाहे वह आयुर्वेद हो,एलोपैथी हो, होमियोपैथी हो—स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं है, स्वास्थ्य क्या है। लेकिन सिर्फ बीमारियों की परिभाषाएं हैं कि बीमारी क्या है। और हमेशा ध्यान में रखें जहां बीमारी नहीं होती, वहां जो शेष रह जाता है, वह स्वास्थ्य है। इसलिए स्वास्थ्य की समस्त परिभाषा नकारात्मक शब्दों से भरी पड़ीं हैं। जैसे बीमारी जहां नहीं है, वहां स्वास्थ्य है। ऐंसे ही अशांति के कारण जहां नहीं हैं, वहां शांति है।

बिना शांति के ईश्वर से सम्वाद कैसा होगा??

       इसी प्रकार व्यक्ति यह भूल करता है कि वह सोचता है कि, ईश्वर हमें शांति दे दे, तो वह निश्चित ही बड़ी गलती में पड़ेगा। क्योंकि ईश्वर से आपका संबंध ही तब होगा जब आप शांत होंगे। इसलिए ईश्वर कोई शांति कैसे दे सकता है। अगर आप सोचते हों कि ईश्वर हमें शांति दे दे, तो आप बहुत बड़ी गलत शर्त लगा रहे हैं। ईश्वर से संबंध ही तब होता है जब आप शांत हों। और जिससे संबंध ही नहीं है, उसकी तरफ की गई प्रार्थना अंधेरे में चली जाती है,अर्थात उस प्रार्थना का कोई बजूद ही नहीं होता,वह कहीं नहीं पहुंचती। क्योंकि जिससे संबंध नहीं,सम्वाद नहीं, उसके साथ कभी भी प्रार्थना का संबंध नहीं बन पाता। शांत चित्त व्यक्ति ही प्रार्थना कर सकता है।

      लेकिन अब तक वर्तमान में मेरे देखे अनुसार बहुत से लोग जो अशांत है वे ही प्रार्थना करते रहते हैं । और निराश होकर अशांत व्यक्ति सोचता है—हमारी प्रार्थना क्यों सुनी नहीं जा रही।यह तो बिल्कुल ऐंसी बात हो गई जैसे कि  टेलीफोन बिना उठाए व्यक्ति बोले चला जा रहा है और सोचता है—दूसरी तरफ कोई सुन नहीं रहा।

एक संक्षिप्त कहानी को ध्यान में रखकर हम समझते हैं,

      एक समय की बात है जब मंडला जिले के राम कुमार यादव जी के घर में दरवाजे की घण्टी खराब हो गई,बडी समस्या हो गई ,राम कुमार यादव जी ने अपनी पत्नी से कहा कि ठीक है आज की रात बीत जाने देते हैं, कल भोर होते ही, में घण्टी सुधारक के समीप जाऊंगा ओर उसे घर बुलाकर घण्टी सुधराता हूँ ।

       ऐंसा कहकर वे उस रात सो गए,दुसरा दिन हुआ श्री रामकुमार यादव ने घण्टी सुधारक को बुलाया क्योंकि यह घण्टी घर से बाहर वालों को, घर के भीतर बुलाने की मध्यस्थ है ।  घण्टी सुधारक को बताये काफी समय हुआ दो दिन बीत गए, तीन दिन बीत गए, वह घण्टी सुधारक फिर भी नहीं आया। तो श्री रामकुमार यादव जी ने फिर उसे फोन किया कि तुम आए नहीं, मैं तीन दिन से रास्ता देख रहा हूं।

        उसने कहा, मैं आया तो था, मैंने दरवाजे की घण्टी भी बजाई थी, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। अब उसको दरवाजे की घण्टी ही सुधरवाने के लिए बुलाया हुआ था। लेकिन वह व्यक्ति कहता है कि मेने दरवाजा स्थित घण्टी बजाई, किसी ने नहीं सुनी इसलिए वापस लौट गए।
अधिक लोगों की प्रार्थनाएं इसी तरह की दरवाजा स्थित घण्टी पर हाथ रखना है, जो बिगड़ी पड़ी है, जो बिना सुधरे कभी नहीं बजेगी। वे जिंदगी भर प्रार्थना करते रहें, कहीं नहीं सुनी जाएगी। जब लगातार ईश्वर प्रार्थना को अनसुनी करते जाते हैं तो फिर व्यक्ति ईश्वर पर क्रोधित होंगे।
क्रोधित अपने पर हों,ईश्वर पर नहीं है , क्योंकि ईश्वर का इसमें कोई कसूर नहीं है।

ईश्वर से संवाद का प्रथम सूत्र :-

      जीवन भर एक बात हमेशा याद रख लें कि,ईश्वर के साथ संवाद का जो पहला सूत्र है, वह "शांति" है। निश्चित ही शांति के ही द्वार से हम उससे संबंधित होते हैं। अथवा यदि इससे विपरीत कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। अशांति के कारण हम उससे दूर हो जाते हैं, अशांति के कारण हम असंबंधित हो जाते हैं। शांति के कारण हम संबंधित हो जाते हैं। शांति संबंध है, अशांति असंबंध है।

अब तो एक बात निश्चित हो गई कि ईश्वर से शांति मत मांगना, बड़े प्रेम से ईश्वर के द्वार आप शांति लेकर जाना। क्योंकि आनंद ईश्वर से मिल सकता है, शांति आपको बनानी पड़ेगी।

        पाठकों को ध्यान में से थोड़ा समझ लेना उचित होगा कि शांति हमारी पात्रता है, क्योंकि आनंद ईश्वर का प्रसाद है। जैसे- जैसे हम शांत होते जाएंगे, वैसे-वैसे आनंद से वह हमें भरते जाता है। ध्यान रखिएगा शांति हमारी पात्रता है, आनंद ईश्वर की वर्षा है। तो आनंद तो प्रसाद है। आप आनंदित नहीं हो सकते, आप सिर्फ शांत हो सकते हैं। आनंद बरसेगा।
          गहरे में ऐसा समझें कि,जैसे शांति हमारा पात्र है और आनंद ईश्वर कि नदी है, जिससे हम अपने पात्र में पानी को भर लाते हैं। यद्दपि आप बिना ही पात्र के नदी के पास चले गए हैं और तेज गति से आवाज दे रहे हैं, और नदी से ही कह रहे हैं कि पात्र दे दे,अब तो हमें पात्र दे ,दे!
नदी पानी दे सकती है, पात्र आपके पास होना चाहिए। ईश्वर से लोग पात्र मांग रहे हैं।लेकिन पात्र तो आपको होना ही पड़ेगा।

शांति का एक प्रयोग जाने कहानी के माध्यम से

          कथा बड़ी रोचक है कि चीन के सम्राट ने बोधिधर्म से पूछाः "मेरा चित्त अशांत है, बेचैन है। मेरे भीतर निरंतर अशांति मची रहती है। मुझे थोड़ी शांति दें या मुझे कोई गुप्त मंत्र बताएं कि कैसे मैं आंतरिक मौन को उपलब्ध होऊं।’’ 

          बोधिधर्म ने सम्राट से कहाः ‘आप सुबह ब्रह्यमुहुर्त में यहां आ जाएं, चार बजे सुबह आ जाएं। जब यहां कोई भी न हो, जब मैं यहां अपने झोपड़े में अकेला होऊं, तब आ जाएं। और याद रहे, अपने अशांत चित्त को अपने साथ ले आएं। उसे घर पर ही न छोड़ आएं।'

           सम्राट घबरा गया; उसने सोचा कि यह आदमी पागल है। यह कहता हैः- ‘अपने अशांत चित्त को साथ लिए आना। उसे घर पर मत छोड़ आना। अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? मैं उसे जरूर शांत कर दूंगा, लेकिन उसे ले आना। यह बात स्मरण रहे।’ सम्राट घर गया, लेकिन पहले से भी ज्यादा अशांत होकर गया। उसने सोचा था कि यह आदमी संत है, ऋषि है, कोई मंत्र-तंत्र बता देगा। लेकिन यह जो कह रहा है वह तो बिलकुल बेकार की बात है, कोई अपने चित्त को घर पर कैसे छोड़ आ सकता है?

           उस दिन सम्राट रात भर सो न सका। बोधिधर्म की आंखें और जिस ढंग से उसने देखा था, वह उन आंखों में सम्मोहित हो गया था। मानो कोई चुंबकीय शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही हो। सारी रात उसे नींद नहीं आई। और चार बजे सुबह वह तैयार था। वह वस्तुतः नहीं जाना चाहता था, क्योंकि यह आदमी पागल मालूम पड़ता था। और इतने सबेरे जाना, अंधेरे में जाना, जब वहां कोई न होगा, खतरनाक था। यह आदमी कुछ भी कर सकता है। लेकिन फिर भी वह गया, क्योंकि वह बहुत प्रभावित भी था।

           बोधिधर्म ने पहली चीज क्या पूछी? वह अपने झोपड़े में डंडा लिए बैठा था। उसने कहाः‘अच्छा तो आ गए, तुम्हारा अशांत मन कहां है? उसे साथ लाए हो न? मैं उसे शांत करने को तैयार बैठा हूं।’ सम्राट ने कहाः महानुभाव ! ‘लेकिन यह कोई वस्तु नहीं है। मैं आपको दिखा नहीं सकता हूं। मैं इसे अपने हाथ में नहीं ले सकता। यह मेरे भीतर है। 

           बोधिधर्म ने कहाः ‘बहुत अच्छा, अपनी आंखें बंद करो, और खोजने की चेष्टा करो कि चित्त कहां है। और जैसे ही तुम उसे पकड़ लो, आंखें खोलना और मुझे बताना मैं उसे शांत कर दूंगा।’

      उस एकांत में और इस पागल व्यक्ति के साथ-सम्राट ने आंखें बंद कर लीं। उसने चेष्टा की, बहुत चेष्टा की। और वह बहुत भयभीत भी था, क्योंकि बोधिधर्म अपना डंडा लिए बैठा था, किसी भी क्षण चोट कर सकता था। सम्राट भीतर खोजने की कोशिश कर रहा था । उसने सब जगह खोजा, प्राणों के कोने-कातर में झांका, खूब खोजा कि कहां है वह मन जो कि इतना अशांत है। और जितना ही उसने देखा उतना ही उसे बोध हुआ कि अशांति तो विलीन हो गई। उसने जितना ही खोजा उतना ही मन नहीं था, छाया की तरह मन खो गया था।

       दो घंटे गुजर गए और उसे इसका पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है। उसका चेहरा शांत हो गया; वह बुद्ध की प्रतिमा जैसा हो गया। और जब सूर्योदय होने लगा तो बोधिधर्म ने कहाः ‘अब आंखें खोलो। इतना पर्याप्त है। दो घंटे पर्याप्त से ज्यादा हैं। अब क्या तुम बता सकते हो कि चित्त कहां है?’

       सम्राट वू ने आंख खोलीं। वह इतना शांत था जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। उसने बोधिधर्म के चरणों पर अपना सिर रख दिया और कहाः ‘आपने उसे शांत कर दिया।’

        सम्राट वू ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः- ‘यह व्यक्ति अदभुत है, चमत्कार है। इसने कुछ किए बिना ही मेरे मन को शांत कर दिया। और मुझे भी कुछ न करना पड़ा। सिर्फ मैं अपने भीतर गया और मैंने यह खोजने की कोशिश की कि मन कहां है। निश्चित ही बोधिधर्म ने सही कहा कि पहले उसे खोजो कि वह कहां है। और उसे खोजने की प्रयत्न ही काफी था-वह कहीं नहीं पाया गया।’ और वह सम्राट शांत हो गया।

उत्तेजना दुख का कारण है -

        जीवन का एक सत्य मेरे अनुभव से आज में लिखती हूँ कि दुख भी एक उत्तेजना है और सुख भी एक उत्तेजना है।दोनों में अशांति रहती है। अंतर केवल इतना है कि जिस उत्तेजना को हम प्रीतिकर समझ लेते हैं, कुछ क्षण ही सही वह सुख अनुभूत होती है। और जिस उत्तेजना को हम अप्रीतिकर समझ लेते हैं, कुछ क्षण ही सही वह दुख अनुभूत होती है।

         एक और गहरी बात यह भी है कि - कोई भी अप्रीतिकर चीज कल प्रीतिकर हो सकती है। अब जो प्रीतिकर है, वह कल अप्रीतिकर हो सकती है। लेकिन दोनों उत्तेजित अवस्थाएं हैं, बिल्कुल भी उत्तेजना शांति नहीं है।

          शान्ति के नाम पर हम सब केवल उत्तेजना खोज रहे हैं। हम शांति नहीं खोज रहे हैं। कहने को बस शांति है,परन्तु ऊपर हमें शांति की आकांक्षा जरा भी नहीं है। शांति की आकांक्षा बड़ी असाधारण आकांक्षा है। निरन्तर जीवन मे हम नई-नई उत्तेजना ही खोज रहे हैं। आश्चर्य यह है कि,शायद हम परमेश्वर के पीछे इसलिए पड़ते हैं कि यह भी नई उत्तेजना कारण होती है कि ईश्वर से भी मिलकर देख लें। हम ध्यान के लिए भी खोज रहे हैं, प्रार्थना के लिए भी जा रहे हैं–शायद नई उत्तेजना की तलाश में।

लेकिन हम क्यों खोज रहे हैं उत्तेजना को ही।

        उत्तेजना को खोजने वाला चित्त न तो शांत हो सकता है और न कभी सत्य को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि जो उत्तेजित है, उसकी उत्तेजना के कारण ही वह जो देखता है, वह सब विकृत हो जाता है। तो उतेजना से ग्रस्त मन सत्य को कैसे जान सकता है?

         उत्तर है लहर को खोना चाहिए, मन शांत होना चाहिए। जैसे झील शांत हो जाए, लहर न उठती हो, लहर न कंपती हो, तो फिर चांद का प्रतिबिंब झलकने लगता है। ऐसे ही मन हो जाए, तो हम शायद जान सकें ईश्वर को, जो है।

एक रोचक विषय को समझते हैं -

          यह समझ लेना उपयोगी है कि सुख प्रीतिकर उत्तेजना है, ऐसी उत्तेजना है जिसे हम प्रेम कर सकें। एक फिल्म आप और मैं देखने जाएं।चूँकि यह फ़िल्म नई है तो आज यह हमें प्रीतिकर लगेगी। कल भी यदि,में उसे देखने जाऊं तो आंख दुखने लगेगी। परसों भी उसी को देखने जाऊं तो सिर भारी हो जाएगा। चोथे दिन भी यदि मुझे जाना पड़े तो सिर घूमने लगेगा, विकृत होने लगेगा। पहले दिन भी यही हुआ था। पहले दिन भी आंख पर उतना ही जोर पड़ा था, जितना दूसरे दिन पड़ा, लेकिन पहले दिन मैं मान कर चली थी कि उत्तेजना प्रीतिकर होगी। जैसे ही जान लिया तो अब अप्रीतिकर हो गया। जिसे हम जानते हैं, वह अप्रीतिकर हो जाता है।

एक कहानी से शांति को समझते हैं-

           एक समय की बात है कि - मैंने सुना है कि एक आदमी पिछले इलेक्शन में हार गया। उसके गांव के लोग उससे भलीभांति परिचित थे। दो-दो चुनाव उसने जीते थे। एक नया आदमी अभी-अभी गांव में आया था और वह चुनाव जीत गया। नया आदमी भी हैरान हुआ। उसने पुराने नेता को पूछाः आश्चर्य है मुझे, मैं नया-नया आया और चुनाव जीत गया, और आप हार गए?

            उसने कहाः घबड़ाओ मत, पुराने भर हो जाओ; तुम भी हार जाओगे। लोग मुझे जानने लगे। तुम्हें अभी जानते नहीं हैं। बस, इतनी-सी बात है।

             जो हम जान लेते हैं उसका रस, उसकी उत्तेजना, उसका सुख विदा हो जाता है। इसीलिए आदमी जानने की खोज में पागल की तरह लगा रहता है ताकि नया जानने में थोड़ा रस मिल जाए। हां, कभी-कभी सुखपूर्ण उत्तेजना भी अगर इकट्ठी ही जोर पकड़ जाए तो प्राण भी ले सकती है। दुख में बहुत कम लोग मरते देखे गए हैं, लेकिन सुख में बहुत लोग मर जाते हैं। क्योंकि, दुख की उत्तेजना हम जन्म से झेलते-झेलते बधिर हो जाते हैं। अगर सुख भारी उत्तेजना लेकर एकदम से सिर पर आ जाए, तो सम्हालना मुश्किल हो जाए। तब टूटने की स्थिति बन जाती है।

चाहने से कभी भी शांति नहीं मिलती है।

          आप सुख चाह रहे हैं, इसलिए शांति नहीं मिल रही है। और शांति चाहें, तो चाहने की और जरूरत ही नहीं है। सिर्फ सुख व्यर्थ हो जाए तो शांति उपलब्ध हो जाती है। शांति को चाहना नहीं पड़ता। जब हमारी कोई चाह नहीं होती,तब शांति मिल जाती है।



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